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________________ ३५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जयकुमार राजेन्द्रप्रसादसे भेंट होने पर उनके कथनानुसार जो कुछ लिखा है उसका सार यह है कि 'गहोई समाजके जो बन्धु जैनधर्मकी विशिष्टताओंसे आकर्षित होकर उसे स्वीकार किया, वे अपने आचरण, चरित्र तथा साधनामें सबसे आगे थे, अतः उनका गहोई नाम बदल कर 'चरनागर' कर दिया गया। - उक्त दोनों महाशयोंके कथनानुसार यह घटना श्री जिनतारण-तरणके कालकी है। अब देखना यह है कि इसमें कितनी सचाई है। यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि अहारक्षेत्रमें जो भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर और खगासन जिनबिम्ब है, वह गृहपति (गहोई) वंशके द्वारा निर्मापित हुआ है। इसका वि. सं." है। इसी प्रकार बानपुरके बाह्य भागमें जो जिनमन्दिर निर्मापित होकर उसमें जिनबिम्ब विराजमान हैं, वे भी इस वंशके द्वारा निर्मापित हुए हैं। उनका सम्वत् लगभग वही है। इससे इस नामके साथ ही गहोईयोंका जैन होना १५-१६वीं शताब्दीसे पहले ही सिद्ध होता है । नाम बदले नहीं और जैन रहा आवे, इसमें हमें कोई बाधा दिखाई नहीं देती। दूसरे गहोईयोंके सब गोत्र चरनागरोंमें नहीं पाये जाते । जैतल और बादरायण ये दो गोत्र ऐसे हैं जो मात्र गहोईयोंमें ही रूढ़ हैं और इनके विपरीत माडिल्ल और फागुल्ल ये दो गोत्र ऐसे है जो पौरपाट (परवार) अन्वयमें भी पाये जाते हैं । तो इससे ऐसा लगता है कि चरनागर पौरपाटों (परवारों) के अति निकट हैं, गहोईयोंके उतने निकट नहीं हैं। फिर भी इन तीन जातियोंका उद्गम कभी ऐसे क्षत्रियोंमेंसे हुआ है, जिनमें ये गोत्र प्रसिद्ध रहे हैं। वर्तमानमें 'मूल' के अर्थमें 'मूर' या 'शाख' शब्द प्रचलित है। अब देखना यह है कि पौरपाट (परवार) अन्वयमें जो १४४ मूल प्रसिद्ध हैं, वे क्या है ? पिछली बार सोनगढ़ में जो पंचकल्यणक प्रतिष्ठा हुई थी, उसमें हमारे सिवाय श्री जगन्मोहनलालजी आदि विद्वान भी सम्मिलित हुए थे। इसी प्रसंगसे एक दिन काना स्वामीके कुटुम्बके भाई-बहन उमरालामें कहाँसे आकर बसे थे-इस बात का उल्लेख करते हुए उस गाँव का नाम लिया गया था जो उनका 'मूल' गाँव रहा है। इससे दो बातें निश्चित होती है। एक तो यह कि पौरपाट (परवार) अन्वयका निकास मूलमें गुजरातके उस भागसे हआ है जो 'प्राग्वाट' कहा जाता है । दूसरी इससे यह बात फलित होती है कि जिस ग्राम, कस्बा या नगरसे आकर जो कुटुम्ब इस अन्वयमें दीक्षित हुए हैं उनका 'मूल' वही स्वीकार कर लिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि महाराष्ट्र में जिस अर्थमें 'कर' शब्दका प्रयोग किया जाता है, उसी अर्थमें पौरपाट अन्वयमें 'मल' शब्दका प्रयोग किया जाता है । इस अन्वयके समान बुंदेलखण्डमें एक गहोई और दूसरे चरनागर अन्वय भी निवास करते हैं । परन्तु 'उनमें 'मल' के स्थानमें 'आंकने' प्रचलित हैं। ये आंकने क्या हैं. इस पर जब ध्यान दिया जाता है, तो उनको देखने से मालूम पड़ता है कि उनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जिनसे गाँव विशेषकी सूचना मिलती है । कुछ नाम ऐसे हैं, जिनसे व्यापार विशेषकी सूचना मिलती है और उनमें कुछ नाम ऐसे भी हैं जो सम्मानसूचक मालूम पड़ते हैं। किन्तु यह स्थिति पौरपाट अन्वयकी नहीं है । इससे ऐसा लगता है कि पौरपाट अन्वय उस कालका अवशेष है जब इस देशमें गणतन्त्र प्रचलित था। कौटिल्यने ऐसे संगठनोंको 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' लिखा है। मालूम पड़ता है कि पहले इस तरहसे बने विभिन्न संगठन कृषि, वाणिज्य और पशुपालन आदिसे अपनी आजीविका करते हए अपने अन्वयकी रक्षाके लिये शस्त्र भी धारण करते थे। किन्तु धीरे-धीरे राजनैतिक स्थितिमें परिवर्तन होने पर इनमें शस्त्र धारण करना न रहकर केवल आजीविकाके मात्र अन्य साधन रह गये। . यहाँ यह कहा जा सकता है कि ऐसे अन्वयोंने क्षात्रवृत्तिको छोड़कर मात्र वार्ताकर्मको ही क्यों स्वीकार कर लिया? समाधान यह है कि जब धीरे-धीरे अन्वयों (गणों)की स्वाधीनता छिन कर एकतन्त्र राज्योंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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