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________________ ३५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. इसी प्रकार प्रो० एच० एच-विल्सन द्वारा जिन ८४ जातियोंका संकलन किया गया है. उसमें भी एक परवार नामका ही उल्लेख है। . ४. गुजरात प्रदेशमें जिन ८४ जातियोंके नाम आये हैं उसमें परवार इस नामका कहीं भी उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ५. रही दक्षिण प्रान्तकी चौथी सूची सो उसमें परवाल और पोरवाल ये दोनों नाम आये हैं। उनमेंसे परवाल यह नाम पौरपाट (परवार) जातिके अर्थमें ही आया है। हम पहले श्री अगरचंद नाहटा द्वारा जाति सम्बन्धी जिन १६१ नामोंका उल्लेख कर आये हैं, उनमें पौरपाट परवारोंके जिन ६ उपभेदोंका उल्लेख किया है उनके नाम इस प्रकार है-१. अठसखा. २. चऊसखा, ३. छ.सखा, ४. दो सखा, ५., पद्मावती पौरवाल और ६. सोरठिया । इन नामोंमें साह बखतराम द्वारा सूचित सात नामोंमेंसे गांगड़ यह नाम छूटा हुआ है । संभव है कि १६१ नामोंमें जो गुजराती और गुर्जर पौरवाड़ ये दो नाम आये हैं, इन्होंमेंसे कोई एक नाम गांगड यह हो सकता है यहाँ विशेष बात यह कहनी है कि जिस प्रकार अन्य जातियोंमें कोई उपभेद नहीं देखा जाता वैसी स्थिति पोरपाट जातिकी नहीं रही है। इसमें अनेक भेद-प्रभेद और उनमें परस्पर एक जातिपनेका व्यवहार नहीं था। इससे इस जातिकी जो हानि हई है उसकी कल्पना करनेमात्रसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पहले हम ऐसी कल्पना भी नहीं करते थे कि इस जातिके भीतर अठसखाके सिवाय अन्य और भी भेद हैं, किन्तु इन भेदोंको देखनेसे अवश्य ही हम यह जान पाये हैं कि इस जातिके भीतर और भी भेद रहे हैं । बहुत संभव है कि इन उपभेदोंके भीतर बेटी व्यवहार और रोटी-व्यवहारका भी संबंध नहीं रहा होगा । हम बहत समय पहले सिरोंजके जिन-मन्दिरोंमें स्थित जिन-प्रतिमाओं आदिके लेख लेने के लिए गये थे । हमें स्मरण आता है कि वहाँके बड़े मन्दिरकी मूल वेदीमें एक प्रतिमा हमने ऐसी भी देखी थी जिसपर कि मूर्तिलेखमें छःसखा यह नाम अंकित था। उसके बाद अन्य स्थानों सम्बन्धी पच्चीसों जिन-मन्दिरोंके मूर्तिलेख और शास्त्रोंके लेख हमने लिखे हैं, परन्तु उनमें ऐसा एक भी मूर्तिलेख या शास्त्रोंमें प्रशस्ति लेख नहीं मिला जिसमें छःसखा यह नाम आया हो। दो सखाको सूचित करनेवाले मूर्तिलेख या शास्त्रोंके प्रशस्ति लेख तो हमारे देखने में कहीं आये ही नहीं। हाँ, श्री जिनतारण-तरणके अनुयायियोंमें दो सखा अवश्य रहे हैं। चौसखे समैयोंसे ये भिन्न हैं। चौसखा परवारोंके विषयमें अवश्य ही हमें कुछ कहना है । पन्द्रहवीं शताब्दीके पूर्व ये सब चौसखा भाई मूर्तिपूजक रहे हैं, किन्तु इन सब चौसखाओंमें श्री जिनतारणतरणके उत्पन्न होनेके बाद, ये सब पूरेके पूरे चौसखा तारण स्वामीके अनुयायी बन गये । इसका कोई न कोई सामाजिक कारण अवश्य होना चाहिये। कहते हैं कि आजसे लगभग ६०० वर्ष पूर्व सागरमें परवार सभाका अधिवेशन हुआ था। उसमें पूरे समैया समाज इस बातके लिए राजी था कि हम सबको मिलाकर परवार जातिका एक संगठन बना लिया जाय । किन्तु उस समय परवार समाजके जो प्रमुख महानुभाव थे वे बिना शर्त उन्हें मिलानेके लिए तैयार नहीं हुए । इसका जो फल निष्पन्न हुआ वह सबके सामने है । ऐसा ही एक प्रयत्न सन् १९२६-२७ में हमने भी किया था। मल्हारगढ़ निसईजीका मेला था । आगासौदके सेठ मन्नुलालजीके विशेष आग्रहपर हम उस मेलेमें सम्मिलित हए थे। उस समय स्थिति यह थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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