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________________ चतुर्थखण्ड : ३४३ इस प्रकार इन सब प्रमाणों पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे श्री लोढ़ाजीने प्राग्वाट शब्द द्वारा अभिहित किया है वही अनेक भागों में विभक्त होकर उनमेंसे एक भेदका नाम ही पौरपाट ( परवार) प्रसिद्ध हुआ। उन सब भेदोंके नाम हैं (१) सोरठिया पौरवाल, (२) कपोला पौरवाल, (३) पद्मावती पौरवाल, (४) गुर्जर ( पौरवाल) (५) जांगड़ा पौरवाड़, (६) मेवाड़ी और मलकापुरी पौरवाल. (७) मारवाड़ी पौरवाल, (८) पुरवार और (९) परवार । किन्तु परवार इस भेदको दौलतसिंह लोढ़ाजी प्राग्वाट या पौरवाड़ अन्वयके अन्तर्गत नहीं मानते । उन्होंने 'प्राग्वाट इतिहास' (प्रथम भाग ) पृ० ५४ पर इस सम्बन्बमें अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है " इस ज्ञातिके कुछ प्राचीन शिलालेखोंसे सिद्ध होता है कि 'परवार' शब्द 'पौरपाट' या 'पौरपट्ट' का अपभ्रंश रूप है । 'परवार', 'पौरवाल' और 'पुरवाल' शब्दोंमें वर्णोंकी समता देखकर विना ऐतिहासिक एवं प्रमाणित आधारोंके उनको एक ज्ञाति वाचक कह देना निरी भूल है । कुछ विद्वान् 'परवार' और 'पौरवाल' ज्ञातिको एक होना मानते हैं, परन्तु यह मान्यता भ्रमपूर्ण है । पूर्व लिखी गई शाखाओंके परस्परके वर्णनों में एक दूसरेकी उत्पत्ति, कुल, गोत्र, जन्मस्थान, जनश्रुतियों, दन्तकथाओं में अतिशय समता है, वैसी परवार ज्ञातिके इतिहासमें उपलब्ध नहीं है । यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है । यह निश्चित है कि परवार ज्ञातिके गोत्र ब्राह्मण ज्ञातीय हैं और इससे यह सिद्ध कि यह ज्ञाति ब्राह्मण ज्ञाति से जैन बनी । प्राग्वाट अथवा पौरवाल, पौरवाड़ कही जानेवाली ज्ञातिसे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र ज्ञाति है और इसका उत्पत्ति-स्थान राजस्थान भी नहीं है । अतः प्राग्वाट इतिहासमें इस ज्ञातिका इतिहास भी नहीं गूंथा गया है ।" ये श्री दौलतसिंहजी लोढ़ाके अपने विचार हैं। उन्होंने इसी पुस्तकके पृ० ५५ की टिप्पणीमें श्री अगरचंद नाहटाके विचारोंको व्यक्त करते हुए लिखा है " प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री अगरचंदजी नाहटा भी पौरवाड़ और परवार जातिको एक नहीं मानते हैं । देखो उनका लेख ' क्या परवार और पौरवाढ़ ज्ञाति एक ही है ?" परवार बन्धु वर्ष ३ सं० ४ मई १९४१ पृ० ४, ५, ६, विद्वानोंके अपने अभिप्राय ये परवार जातिको प्राग्वाट या पौरवाल जातिसे भिन्न माननेमें उक्त दोनों हैं । किन्तु मालूम पड़ता है कि उन्होंने अपने विचार इतिहासका सम्यक् प्रकार से अनुशीलन किये बिना प्रकट किए हैं । जिसने जाति विषयक इतिहासका थोड़ा भी अवलोकन किया है, वह ऐसे अविचारित विचारोंको प्रश्रय देनेके लिए कभी भी तैयार नहीं हो सकता । हम यहाँ आगे पट्टावलीके एक ऐसे अंशको उद्धृत कर रहे हैं जिससे इस बात की भी भली प्रकार पुष्टि होती है कि अन्य पौरवाल आदि जातियोंके समान परवार जातिका भी निकास प्राग्वाट जातिसे ही हुआ है। पट्टावलीका यह अंश इस प्रकार है- तत्पट्टोदयसूर्य - आचार्य वर्य नवविथब्रह्मचर्य पवित्रचर्यामंदिर-राजाधिराजमहामंडलेश्वरवज्रांग-गंग-जयसिंह-व्याघ्रनरेंद्रादिपूजितपादपद्मानां अष्टशाखा - प्राग्वाटवंशावतंसानां षड्भाषावि चक्रवर्ति-भुवनतलव्याप्त विशदकीर्ति · विश्व विद्याप्रसादसूत्रधार- सब्रह्मचारिशिष्यवरसूरि श्री श्रुतसागरसेवितचरणसरोजानां श्रीजिनयात्राप्रासादोद्धरणोपदेशा नैकजीवप्रतिबोधकानां श्रीसम्मेदगिरिचंपापुरिपावापुरीऊ जंयतगिरि-अक्षयवड आदीश्वरदीक्षा सर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां श्री सहस्रकूटजिनबिंबोपदेशक - हरिराज कुलोद्योतकराणां श्रीविद्यानंदी परमाराध्यस्वामिभट्टारकाणाम् ॥ (भट्टारक सम्प्रद्राय पृ० १७२, लेखांक ४३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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