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________________ ३४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ भारतवर्षके इस भागमें श्रीमालपुर ही सबसे बड़ा नगर था । इस नगरमें अधिकांशतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बसते थे और वे भी उच्चकोटिके। नगरकी रचना 'श्रीमाल माहात्म्य' में इस प्रकार वर्णित की गई है कि उत्कट धनपति अर्थात् कोटीश जिनको धनोत्कटा कहा गया है, श्रीमालपुरकी दक्षिण दिशामें बसते थे और इनसे कम धनी (श्रीमंत) उत्तर और पश्चिम दिशामें बसते थे और वे श्रीमाली कहे गये हैं । (मानो वह) स्वयं लक्ष्मीदेवीका क्रीड़ास्थल ही हो । श्रीमालपुरका ऐसा जो समृद्ध और वनराजिसे सुशोभित पूर्व भाग था, जो श्रीमालपुरका पूर्ववाट कहा गया है उसमें बसने वाले प्राग्वाट कहे गये हैं।" ये कतिपय लेख हैं जिनसे ऐसा लगता है कि आजसे लगभ- दो हजार वर्षसे पूर्व भी कतिपय जातियोंका निर्माण हो चुका था । पौरपाट (परवार) जाति उनमेंसे एक है। . हम पहले ही गुप्तिगुप्त आचार्यका उल्लेख कर आये हैं । उनका दूसरा नाम अर्हबलि भी रहा है । क ते हैं कि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके समय उन्होंने एक विशाल मुनि-सम्मेलनका आयोजन किया था जिसमें सौ योजन तककी दूरीके मुनि एकत्र हुए थे। उनकी भावनाओं परसे उन्होंने यह जान लिया था कि अब पक्षपातका युग आ गया है । फलस्वरूप उन्होंने पूरे संघको अनेक भागों में विभक्त कर दिया था। मेरी रायमें जैन समाजमें विविध जातियोंकी उत्पत्ति का यही काल होना चाहिये और इसलिये यह सम्भव है कि उन्होंने पौरपाट जातिको स्वीकार करने के बाद ही मुनि दीक्षा अंगीकारकी थी। बहुत सम्भव है कि उन्होंने उसके बाद परवारोंके एक हजार घरोंकी स्थापना भी की हो। (२) हमारे पास जो थोड़े बहुत प्रतिमा लेख हैं, उनमेंसे एक प्रतिमा-लेख ऐसा भी है जो विक्रम संवत् १८९ का होकर भी जिसमें अठसखा अन्वयके अन्तर्गत जिन बिम्बकी प्रतिष्ठा करानेवालेको डेरियामरी कहा गया है। पूरा लेख इस प्रकार हैं "संवत् १८९ माघ शुक्ला ८ आष्टासाखे प्रतिष्ठितम् डेरियामूरो श्रीकरठाकेन'' यह जिनबिम्ब मथुरासे वृन्दावनको जो मार्ग जाता है उसमें एक टीलेकी खुदाईमें स्वप्न देकर उपलब्ध हुआ था । यह जिनबिम्ब चौरासी (मथरा) के जिन मन्दिरमें मलवेदीके पीछेकी वेदीमें स्थापित है। (३) श्री पं० दयाचन्द शास्त्री उज्जैनसे प्राप्तकर श्री डॉ. हरीन्द्रभूषणजी ने हमारे पास द्वितीय भद्रबाहुके कालसे लेकर लगभग १८वीं शताब्दि तककी एक पट्टावलि भेजी है। उसमें आचार्य गुप्तिगुप्तके सम्बन्धमें लिखा है संवत् २६ फाल्गुण सुदि १४ गुप्तिगुप्तजी गृहस्थ वर्ष, २२, दीक्षा वर्ष ३४, पट्टस्थवर्ष ९, मास ६, दिन २५, विरहदिन ५, सर्वायु (वर्ष) ६५, मास ७, जाति परवार। इस पट्टावलीसे भी उसी अर्थकी पुष्टि होती है, जिसका उल्लेख हम श्री लमेंचू जातिके इतिहासमें कर आये हैं। (४) फरवरी १९४० परवारबन्धुके अंकमें सरस्वतीगच्छकी एक पट्टावलि मुद्रित हुई है। उसमें भी श्री गुप्तिगुप्त मुनि वि० सं० २६ में हुए ऐसा लिखकर उन्हें परवार सूचित किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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