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________________ ३२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह भी संस्कृत मिश्र प्राकृतमें लिखी गई है। टीकाका परिमाण सब मिलाकर साठ हजार श्लोक प्रमाण है। साधारणतः धवला टीकामें जिस प्रकार षट्खण्डागमके प्रारम्भके पांच खण्डोंमें प्रतिपादित विषयका विशदरूपसे स्पष्टीकरण किया गया है उसी प्रकार जयधवला टीकामें भी कषायप्राभूत और चणिसूत्रों द्वारा प्रतिपादित विषयका विस्तारसे विवेचन किया गया है । इतना अवश्य है कि प्रारम्भके पेञ्जदोसविभक्ति, प्रकृतिविभक्ति और स्थिति विभक्ति इन तीन अधिकारोंमें जिस प्रकार विषयका विवेचन चौदह मार्गणाओके आश्रयसे किया गया है उस प्रकार अनुभागविभक्ति आदि अविकारोंमें चौदह मार्गणाओंका आथ्य लेकर विषयका विवेचन न करके मात्र गतिमार्गणाका आश्रय लेकर ही स्वामित्वादि प्ररूपणाओंका विवेचन किया गया है। यह टीका भी प्रमेयबहुल होने से इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंका विवेचन दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ उत्कर्षण अपकर्षण और संक्रमणके लिए कषायप्राभूत चूणिसूत्र और जयधवला टीका विशेषरूपसे द्रष्टव्य है । आचार्य कुन्दकुन्द साहित्य जैन परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्दका जो स्थान है उनके द्वारा रचित परमागमका वही स्थान है। भगवान् सर्वज्ञदेवकी दिव्यध्वनि श्रवण कर उसके साररूपमें उसकी रचना हई है। समग्र द्वादशांगमें स्वसमयकी ही मुख्यता है और आचार्य कुन्दकुन्द रचित परमागम मुख्यरूपसे स्वसमयकी ही प्ररूपणा करता है, इसलिए यह मंगलस्वरूप है । प्रत्येक व्यक्तिके जीवनमें स्वतन्त्रताका जो महत्त्वपूर्ण स्थान है उसका तात्त्विक भूमिकासे उद्घाटन करनेवाला जो परमागम विश्वमें उपलब्ध होता है उसमें यह मुख्य है । कुन्दकुन्दरचित इस एक परमागमके जान लेनेसे पूरा जिनागम ज्ञात हो जाता है । अनादि कालसे संसारी जीवको निमित्त और रागकी पकड़ बनी चली आ रही है । किन्तु इसके स्वाध्याय और मननसे राग और निमित्त की पकड़ छुट कर मोक्षका द्वार अनावृत्त हो जाता है। परके कर्ता रूपमें ईश्वरका निषेध करना अन्य बात है किन्तु ईश्वरवादको पकड़को तिलांजलि देना अन्य बात है। जो स्वाश्रयी वृत्तिको जीवनमें स्थान देने में असमर्थ है वह आचार्य कुन्दकुन्दके परमागमको समझनेका पात्र नहीं हो सकता । यह परमागम साक्षात् केवली जिनकी वाणीको अवधारण कर लोककल्याणकी भावनासे लिखा गया है, इसलिए तो प्रमाण है ही। साथ ही श्रुतकेवली द्वारा रचित द्वादशांग श्रुतको क्रम परम्परासे प्राप्त कर इसकी रचना हुई है, इसलिए भी प्रमाण है। क्षेत्रभेद या कालभेदके होने पर भी ज्ञानियोंके उपदेशमें अन्तर नहीं होता यह इससे सिद्ध होता है। यों तो भगवान् कुन्दकुन्दने विपुल साहित्यकी रचना की थी। प्रयासमा TOPoooo Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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