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________________ चतुर्थ खण्ड : ३२३ इतना निर्देश किया गया है कि किस अधिकारके विषय-विवेचनमें कितनी गाथायें निबद्ध हैं। संक्रमण अनुयोगद्वारमें २७ से लेकर ५८ तककी गाथाओं पर भी चूणिसूत्र नहीं हैं । परन्तु इन गाथाओंके प्रारम्भमें 'तत्थ पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा तं जहा' यह चूर्णिसूत्र आया है और इन गाथाओंके अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए इमे अणुयोगद्दारा' यह चूणिसूत्र आया है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि आचार्य यतिवृषभके समक्ष ये गाथायें रही अवश्य है, परन्तु विशेष विवेचन करना इष्ट न होनेसे इन पर उन्होंने चूर्णिसूत्रोंकी रचना नहीं की। आचार्य गुणधरने पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त जिन १८० गाथाओंका उल्लेख किया है उनमें पूर्वोक्त ६ + ११ + ३२-४९ गाथायें सम्मिलित नहीं हैं। तथा इनके सिवा १७, २५, २६ तथा २७ क्रमांक की गाथाएँ भी सम्मिलित नहीं है, पर इन चारों गाथाओं पर चणिसत्र उपलब्ध होते हैं। इससे विदित होता है कि १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंकी रचना की तो थी आचार्य गुणधर ने ही, पर सरल समझ कर आचार्य यतिबृषभने उनसे कतिपय २ से १२ तथा १५-२० गाथाओं पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना महीं की और संक्रमवृत्ति-सम्बन्धी गाथाओंकी चूणिसूत्रों द्वारा स्वीकृति मात्र दी। इनके सिवा शेष सब गाथाओं पर आचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्र हैं। इन द्वारा उन्होंने मूल सूत्रगाथाओंमें निबद्ध दुरूह विषयोंका जो सुगम और सुस्पष्ट व्याख्यान किया है वह उनके रचनासौष्ठवके साथ विषयस्पर्शी अगाध पाण्डित्यको ही सूचित करता है। यह तो सुविदित सत्य है कि आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें उन्हीं विषयोंका सम्यक् विवेचन किया है जिनकी सूचना आचार्य गुणधरने कषायप्राभृतके स्वरचित पन्द्रह अधिकारोंमें दी है। किन्तु मूल गाथाओंको ध्यानमें रखकर आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें मूल कषायप्राभृतमें प्रतिपादित पन्द्रह अधिकारोंको तदनुरूप भिन्न प्रकारसे विभक्त कर स्थान दिया है । यथा-१. पेज्जदोषविभक्ति, २, प्रकृति-स्थितिअनुभाग-प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक, ३. बन्ध (अकर्मबन्ध), ४, संक्रमण (कर्मबन्ध), ५. उदय, ६. उदीरणा, ७. उपयोग, ८. चतुःस्थान, ९. व्यञ्जन, १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. देशविरति, १३. चारित्रमोहोपशामना, १४. चारित्रमोहक्षपणा और १५. अद्धापरिमाणनिर्देश । टीका ग्रन्थ जैन परम्परामें षट्खण्डागमका जितना महत्त्व है, कषायप्राभृतका उससे कम महत्त्व नहीं है। अति प्राचीन कालमें इसकी रचना होनेके बाद इस पर भी षट्खण्डागमके समान अनेक आचार्योने विस्तृत टीकायें रची हैं । उनमेंसे अनेकका उल्लेख हम पूर्वमें ही कर आये हैं । इस पर लिखी गई वर्तमानमें उपलब्लध टीका जयधवला है । उसका सम्यक् प्रकारसे अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि जयधवलाकी रचना करते समय जयधवलाकारके सामने उच्चारणवृत्ति, मूलोच्चारणा, वप्पदेवविरचित उच्चारणा, स्वयं आचार्य वीरसेन द्वारा लिखित उच्चारणा और लिखित उच्चारणा इस प्रकार पाँच उच्चारणायें रही है । साथ ही कुछ ऐसे व्याख्यानाचार्य भी हो गये हैं जिनके अभिप्रायोंसे भी वे परिचित थे। जयधवलाका कलेवर इन्हीं पांच उच्चारणाओं और व्याख्यानाचार्योंके अभिप्रायोंसे पुष्ट हुआ है । इनके सिवा कषायप्राभृतका अन्य कोई टीका साहित्य जयधवलाकारके सामने था यह लिखना बहुत कठिन है । जयधवला कषायप्राभूत और उस पर लिखे गये चूर्णिसूत्रोंका परिचय हम पूर्वमें करा आये हैं। उन दोनोंका विस्तृत व्याख्यान करनेवाली यह जयधवला टीका है । यह टीका आचार्य वीरसेन और जिनसेनकी कृति है। आचार्य वीरेसना आये हैं । जन दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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