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________________ ३०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ गमन करते हुए जीवों और पुद्गलोंके गमन करनेमें धर्म द्रव्य व्यवहार हेतु है तो क्या इसमें उनके अगुरुलघुगुणों और उनकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता ! क्या वे क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरित नहीं होते ? यदि कहो कि वे भी अपने-अपने द्रव्योंके साथ क्षेत्र क्षेत्रान्तरित होते हैं, इसलिए उनमें धर्मद्रव्यकी व्यवहारहेतुता बन जाती है । यदि ऐसा है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघु गुणोंकी स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया है इसी प्रकार वहाँ अन्य सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया होता । गमन करके स्थित होने वाले जीवों और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्म द्रव्य व्यवहार हेतु हैं तो क्या इसमें अगुरुलघु गुण और उनकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता क्या वे अपने-अपने आश्रयभूत जीवों और पुद्गलों के साथ स्थित नहीं होते ? यदि कहां कि वे भी स्थित होते हैं, क्योंकि आश्रयके बिना वे पाए नहीं जाते, इसलिए उनके स्थित होने में अधर्मद्रव्यको व्यवहार हेतु माननेमें कोई बाधा नहीं आती। यदि ऐसा है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघु गुणोंकी स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया है उसी प्रकार अन्य सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया होता । यह तो सर्वसाधारण आश्रय हेतुओंके आधारपर विचार है। अब थोड़ा इस दृष्टिसे विचार कीजिए कि यह अगुरुलघु गुण (केवल जिसकी स्वभाव पर्यायोंको उस पुस्तकमें रवप्रत्यय स्वीकार किया गया है) सामान्य गुण है या विशेष गुण है ? विशेष गुण तो हो नहीं सकता, क्योंकि यह सब द्रव्योंमें पाया जाता है, अतः सामान्य गुण होना चाहिए । ऐसी अवस्था में मात्र इस गुणकी होने वाली सब स्वभाव पर्यायें तो केवल स्वप्रत्यय हों तथा अन्य समस्त अस्तित्व आदि सामान्य गुणोंकी स्वभाव पर्यायें स्व- परप्रत्यय हों यह कैसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता है। हमें तो यह इस पुस्तक्के रचयिताकी मात्र कल्पना ही समझ में आती है। हमें यह खेद होता है कि उस पुस्तकमें व्यवहार पक्षके समर्थनका बीड़ा अवश्य उठाया गया, पर उस लिखानमें आगमका निर्वाह न कर कल्पनाका ही अधिक सहारा लिया गया। जैनतत्त्वमीमांसा के विरोधमें उस लिखान से कुछ मनीषी भले ही सन्तोषका अनुभव करते हों, पर जब वे तथ्योंपर दृष्टिपात करेंगे, तब वे असमंजस में पड़े बिना नहीं रहेंगे । उस पुस्तकके उक्त वक्तव्यमें आकाश द्रव्यके पदार्थोंको अवगाहित करने रूप परिणमनको पदार्थांधीन स्वीकार किया है | मालूम पड़ता है उस पुस्तकमें इस कथन द्वारा एक अगुरुलघु गुणको छोड़कर शेष सब पदार्थोंको पराधीन सिद्ध करनेका प्रयत्न है । जब कि आगमकी यह स्पष्ट घोषणा है कि धर्म या धर्मीकी सिद्धिके लिए परकी अपेक्षासे कथन किया जाता है, वे स्वरूपसे स्वयं हैं, क्योंकि किसीका स्वरूप पराश्रित नहीं हुआ करता । प्रत्येक द्रव्यकी प्रत्येक पर्याय जिस कालमें जैसी है स्वयं है। वह वंसी क्यों है उसकी वैसी होनेमें परकी सहायता नहीं हुआ करती। यहाँ आप्तमीमांसाकी धर्मधर्म्यविनाभावः' इत्यादि कारिका और उसकी अष्टसहस्री टीकाको हृदयंगम कर लेना चाहिए तभी सभी व्यवहारनय और निश्चयनयके विषय और वक्तव्यको भले प्रकार हृदयंगम कर सकेंगे । उसमें कारकांग और ज्ञापकांग दोनोंको उदाहरण रूपमें स्वीकार कर लिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विकल्प और कथनमें परसापेक्षता बनती है, वस्तु या उसकी पर्याय परसापेक्ष नहीं हुआ करती । जब कि अगुरुलघु गुणकी स्वभाव पर्यायके समान सभी द्रव्योंकी स्वभाव पर्यायें स्वप्रत्यय ही होती हैं ऐसी अवस्थामें मुक्ति की प्राप्ति के लिए अपनी पराश्रित वृत्तिको दृष्टिमें गौण करके स्वभावका आलम्बन लेकर स्व-समय प्रवृत्त होना ही एक मात्र मुक्ति प्राप्त करनेका यथार्थ मार्ग है। अन्य सब कल्पनाएं आदि अनादि कालसे आई पराश्रित वृत्तिका परिणाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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