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________________ चतुर्थ खण्ड : ३०१ अर्थ किया गया है और उस आधारपर इस मान्यताकी पुष्टि की गयी है कि केवल अगुरुलघुगुणकी अर्थपर्याय मात्र स्वप्रत्यय होती है। जबकि उक्त आगमका यह आशय नहीं है । नयचक्रके पृष्ठ १२में यह गाथा है अगुरुलहुगाणता समयं समयं समुभवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया सहावगणपज्जया जाण ॥२१॥ अगुरुलघु अनन्त है और जो प्रति समय उत्पन्न होते हैं और व्ययको प्राप्त होते हैं। उन्हें द्रव्योंकी स्वभाव गुण पर्याय जानों। ___नयचक्रकी इस गाथामें गुण शब्द नहीं दिया है । प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त अगुरुलघु गुण होते हैं, यह भी इसका आशय नहीं है । 'गुण' शब्द भाग या अंशके अर्थमें भी आता है, अतः सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवातिकमें गण शब्दका 'पर्याय' अर्थ करना ही संगत प्रतीत होता है । संक्षेपमें स्पष्टीकरण पहले ही कर आये हैं। उत्पन्न ध्वंसी पर्यायें होती हैं, गुण नही । अगुरुलघुगुणकी मात्र स्वप्रत्यय पर्यायें होती हों अन्यकी नहीं, ऐसा भी नहीं है । आगममें तो जीव और पुदगलको छोड़ कर अन्य चारों द्रव्योंके सभी गुणोंकी मात्र स्वभाव पर्यायें ही स्वीकार की गई हैं और वे परनिरपेक्ष ही होती हैं । इसी ग्रन्थकी १८वीं गाथामें जीवों और पुद्गलोंकी स्वभाव और विभाव दो प्रकारकी पर्याय स्वीकार की हैं। जीवोंके विषयमें १९वीं गाथामें लिखा है कि जीवमें जो स्वभाव पर्यायें है कर्म-कृत होनेसे वे ही विभाव पर्यायें हैं । इससे यह साफ स्पष्ट हो जाता है कि जीवकी जिन पर्यायोंके होनेमें 'कर्म ने की' ऐसा व्यवहार होता है वे सब विभाव पर्यायें हैं । तथा जिनमें ऐसा व्यवहार नहीं होता वे सब स्वभाव पर्यायें है । इसी प्रकार पुद्गलमें भी बन्धरूप पर्यायोंको विभाव पर्यायें जानना चाहिए क्योंकि इनमें पर बन्धके नियमानुसार 'अधिक गणवाले हीन गुणवालोंको परिणमाते हैं।' यह व्यवहार लागू होता है। इनके अतिरिक्त परमाणु अवस्थामें रहते हुए परमाणुओंकी जितनी भी पर्याय होती है, वे सब स्वभाव पर्यायें हैं, क्योंकि उनपर उक्त प्रकारका व्यवहार लागू नहीं होता। उस पुस्तकमें स्वभाव पर्यायोंको दो प्रकारका बतलाते हुए यह तो लिख ही दिया गया है कि "अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशों अविभाग प्रतिच्छेदों) में षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप स्वभाव या गुण पर्यायें ही स्वप्रत्यय अर्थ पर्यायें है तथा इन्हें छोड़ कर जितनी स्वभाव या गण पर्यायें हैं वे सब स्व-परप्रत्यय अर्थ पर्याय हैं।" पर वहाँ ऐसा लिख जानेसे जो अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं उनका उस पुस्तकमें आगमके अनुसार कोई समाधान नहीं है ? यथा (१) अपने-अपने गुण पर्यायों सहित अन्य पाँच द्रव्योंको अवगाहित करनेमें आकाश द्रव्य व्यवहार हेतु है तो क्या इसमें उनके अगुरुलघुगणोंका ग्रहण नहीं होता। आकाश द्रव्य अन्य पाँचों द्रव्योंको तो पूरी तरहसे अवगाहिन करे और अगुरुलधुगुण तथा उनकी पर्यायें अवगाहित न हों यह कैसे हो सकता है ? यदि इनका भी आकाशमें अवगाहित होना माना जाता है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघुगणोंकी गण पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय रूपसे स्वीकार किया गया है उसी प्रकार सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वोकार कर लिया गया होता। (२) काल द्रव्य अन्य पाँच द्रव्यों की पर्यायोंके होने में व्यवहार हेतु है। तो क्या इसमें उनके अगुरुलघु गणकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता ? क्या ऐसा कोई आगम वचन है जिससे यह समझा जा सके कि अगुरुलघुगणोंकी पर्यायों के होनेमें कालद्रव्यको व्यवहार हेतु माना गया है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार अगुरुलघुगुणोंकी पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया है उसी प्रकार सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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