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________________ स्वभाव - परभाव- विचार जैनशासन में प्रत्येक द्रव्यको अर्थक्रियाकारी स्वीकार किया गया है । उन सब द्रव्योंमें पूर्वाकारका परि हार, उत्तराकारकी प्राप्ति तथा इन दोनों अवस्थाओं में स्थिति लक्षणवाले परिणामोंके द्वारा अर्थ-क्रिया सम्पन्न होती है। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर सब द्रव्योंको गुण पर्याय स्वभाव वाला स्वीकार किया गया है। गुण सहभावी होते हैं और पर्याय क्रमभावी ऐसी वस्तु व्यवस्था है। अमृतचन्द्र देव ने समयसारकी आत्मस्याति टीकामें पर्यायोंको जो क्रम नियमित कहा है वह इसी आधारपर कहा है । पर्याय निरपेक्ष होती है । 7 यहाँ प्रकृतमें पर्यायोंके आधारसे विचार करना है । लोकमें समुच्चय रूपसे छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं । उनमें से धर्म अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं अर्थात् क्षेत्रके क्षेत्रान्तरित न होते हुए भी प्रदेशपरिस्पन्दरूप क्रियासे रहित हैं। उनमें मात्र परिणाम लक्षण क्रिया होती है तथा जीवों और पुद्गलोंमें यथासम्भव दोनों प्रकारकी क्रिया पाई जाती है। अब देखना यह है कि इन द्रव्योंकी यह क्रिया स्वयं होती है या दूसरे द्रव्योंकी सहायतासे होती है । यह प्रश्न बहुत गम्भीर है इसका विचार नयदृष्टिसे करना होगा। यह प्रमाण ज्ञानका विषय नहीं है। नय दो प्रकारके हैं इव्यार्थिकनय और पर्यायायिकनय पर्यायार्थिकनय के भेदों में मुख्य ऋजुसूत्र नय है, शेष तीन शब्दनव इसीके विषयको शब्द प्रयोगकी मुख्यतासे विषय करते हैं। ऋजुसूत्रका विषय वर्तमान पर्याय मात्र है। वह किसी भी प्रकारके दो सम्बन्धको स्वीकार नहीं करता। इसलिए इस नवकी दृष्टिसे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक उत्पाद स्वयं होता है और विनाश भी स्वयं होता है। अन्य किसी कारणसे उत्पाद और व्यय नहीं होते । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए जयधवला (पुस्तक १ पृष्ठ २०८) में कहा गया है उत्पाद रूप पर्याय भी निर्हेतुक होती है तथा जो उत्पन्न हो रहा है, वह तो उत्पन्न करता नहीं है । क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर उत्तर क्षण में तीनों लोकोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है जो उत्पन्न हो चुका है वह उत्पन्न करता है, यह भी नहीं है। क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर क्षणिक पक्ष नहीं बन सकता । जो विनष्ट हो गया है, वह उत्पन्न करता है यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभावले भावकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । तथा पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद इन दोनोंमें कार्यकारण भावका समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं बनती। अतीत पदार्थके अभावसे उत्पाद होता है, यह कहना तो बनता नहीं, क्योंकि भाव और अभावमें कार्य कारण भावका विरोध है। अतीत पदार्थके सद्भावसे उत्पाद होता है, यह कहना भी नहीं बनता। क्योंकि इसे स्वीकार करने पर अतीत पदार्थके कालमें ही नवीन पदार्थकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। दूसरे चूँकि पूर्व क्षणकी सत्ता अपनी सन्तानमें होनेवाले उत्तर अर्थक्षणकी विरोधिनी है, इसलिए वह उसकी उत्पादक नहीं हो सकती क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओंमें उत्पाद्य उत्पादक भावके स्वीकार करनेमें विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा उत्पाद निर्हेतुक होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। शंका - अष्टसहस्री (पृष्ठ १०० ) में तो प्रागभावका निर्देश करते हुए पूर्व, अनन्तर क्षण स्वरूप जो कार्यका उपादान परिणाम है, वह ऋजुणनयकी अपेक्षा प्रागभाव है, ऐसा कहा है। सो उक्त कथनका विचार करते हुए यह कथन कैसे घटित होता है ? समाधान — ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणको या तो कारणरूपसे स्वीकार करता है, पर पूर्व और उत्तर दो क्षणोंमें सम्बन्धको स्वीकार कथनसे उक्त कथनमें कोई विरोध नहीं आता । - Jain Education International For Private & Personal Use Only स्वीकार करता है या कार्यरूपसे नहीं करता । इसलिए 'जयघवला' के www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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