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________________ चतुर्थ खण्ड : २९३ समाधान--सहायता और सहयोग ये पर्यायवाची नाम है । इसका इतना ही अर्थ है कि प्रत्येक कार्यमें बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता नियमसे होती है। इससे अधिक इस शब्दका जो भी अर्थ किया जाता है वह केवल कल्पनाका विषय है, यथार्थ नहीं । समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकामें कुम्भकारको कुम्भकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यापार करने वाला तब कहा गया है जब मिट्टी और कुम्भकारमें बाहरसे व्याप्य-व्यापक भाव स्वीकार कर लिया गया है । अर्थात् नैगमनयसे इन दोनोंको एक मान लिया गया है । परमार्थसे विचार करनेपर मिट्टी और कुम्भकार इन दोनोंके स्वचतुष्टय भिन्न-भिन्न हैं। दोनों ही द्रव्य अपनीअपनी क्रिया करते हैं. एक दूसरेकी क्रिया करते नहीं। केवल उन दोनोंकी उक्त प्रकारकी क्रियाएँ एक कालमें होनेका नियम है और इसीलिए कुम्भकार के व्यापारको कुम्भकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यवहारसे कहा जाता है । परमार्थसे न तो एक द्रव्य किसीके अनुकूल होता है और न प्रतिकूल ही। किसीको किसीके अनुकूल या प्रतिकूल मानना यह विकल्पका विषय है और इसीलिए अन्य अपेक्षा किये बिना प्रत्येक द्रव्य स्वभावसे ही अपना कार्य करता है, इसे परमार्थरूपमें स्वीकार किया गया है। ___ शंका-स्वयंभूस्तोत्र में, अध्यात्ममें रमण करने वाले जीवोंके जीवनमें जिस बाह्य वस्तुमें निमित्त व्यवहार होता है वह गौण है, यह भगवानका शासन है, ऐसा कथन करनेके बाद फिर यह कहा गया है कि सभी कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है सो उक्त दोनों प्रकारके कथनोंका क्या आशय है ? समाधान-उक्त कथनोंका यह आशय है कि मोक्षमार्गी जीवको मोक्षमार्गकी प्राप्ति स्वभावके सन्मुख रहनेपर ही होती है । क्योंकि वस्तुतः परभावका ग्रहण-त्याग तो होता नहीं, फिर भी, लौकिक जनोंके इष्टानिष्ट या हिताहित बुद्धिसे जो परभावके ग्रहण त्यागका विकल्प होता है उससे विरत होनेपर ही मोक्षमार्ग पर चलनेके अभिप्राय वालेके स्वभाव सन्मुख होना बनता है, अन्यथा नहीं । इसलिए अध्यात्मदृष्टिमें, जिस वस्तुमें निमित्त व्यवहार होता है, वह गौण है, यह कथन किया गया है। परन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ फलित करता है कि वहाँ बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता नहीं होती, सो उसकी वह मान्यता जिनागमके विरुद्ध है। यह वस्तु-स्थिति है । इसीको ध्यानमें रखकर 'स्वयंभूस्तोत्र' में उसके आगे दुसरा वचन कहा गया है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए । आशय यह है कि लोकमें जितने भी कार्य होते है, उन सबमें बाह्य और आभ्यान्तर उपाधिकी समग्रता तो नियमसे होती है पर अध्यात्म वृत्त बाह्य उपाधिका आश्रय न करके मात्र अपने स्वभावका ही आश्रय करता है। उसके जो सम्यग्दर्शनादि स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है वह मात्र इस सुनिश्चित मार्गपर चलनेसे ही होती है। स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति इससे भिन्न दूसरे मार्गपर चलनमे होती होगी, ऐसा त्रिकालमें सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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