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________________ चतुर्थखण्ड : २७३ न्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्तका उत्कृष्ट योग, पर्याप्त उन्हींका जघन्य योग तथा पर्याप्त उन्हींका उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है। यहाँ प्रत्येकका उत्तरोत्तर योगगुणकार पत्थोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यहाँ जिस प्रकार योगका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुञ्जका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। गुणकार भी वही है । २. प्रदेशबन्ध स्थानप्ररूपणा पहले जितने योगस्थान बतला आये हैं उतने प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि योगस्थानों से प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं । खुलासा इस प्रकार है कि जघन्य योगसे आठ कर्मोंका बन्ध करने वाले जीवके ज्ञानावरणीय कर्मका एक प्रदेश बन्धस्थान होता है । पुनः प्रक्षेप अधिक योगस्य नसे बन्ध करने वाले जीवके ज्ञानावरणीय कर्मका दूसरा प्रदेशबन्धस्थान होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिये। इससे जितने यीगस्थान है उतने ही ज्ञानावरणीयके प्रवेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कमौके योगस्थान प्रमाण प्रदेश बन्धस्थान घटित कर लेना चाहिये । उपपाद योगस्थानों और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंके कालमें आयु कर्मका बन्ध नहीं होता, इसीलिए आयुकर्मके उतने ही प्रदेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं जितने परिणाम योगस्थान होते हैं। यहां योगस्थानोंस प्रदेशअन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा अधिक होते हैं इसका विचार आगमानुसार करना चाहिए। इतना अवश्य है कि यह नियम आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोपर ही लागू होता है, आयु कर्म पर नहीं, क्योंकि उसके जितने परिणाम योगस्थान होते हैं उतने ही प्रवेशबन्धस्थान पाये जाते हैं । 'प्रकृति विशेषकी अपेक्षा अधिक होते हैं' इस वचनका दूसरा अर्थ यह है कि ऐसी प्रकृति अर्थात् स्वभाव है कि आठ कर्मोंका बन्ध होते समय आयुकर्मको सबसे अल्पद्रव्य प्राप्त होता है। उससे नाम और गोत्र प्रत्येक को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय प्रत्येकको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे मोहनीय कर्मको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे वेदनीयको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। आयुकर्मके बिना सात कर्मोंमें तथा आयु और मोहनीय कर्म को छोड़कर छह कर्मोंमें उक्त विधिसे ही द्रव्य प्राप्त होता है। यहाँ जिस प्रकार मूल प्रकृतियोंको ध्यान में रखकर विचार किया उसी प्रकार आगमानुसार उत्तर प्रकृतियोंमें भी विचार कर लेना चाहिए । इस अर्वाधिकारमें मूल व उत्तर प्रकृतियोंका अन्य जितने अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है उन सबका इस निबन्धमें ऊहापोह करना सम्भव नहीं है। मात्र मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा ओपसे वन्धस्वामित्वका स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है । ३. बन्धस्वामित्व प्ररूपणा स्वामित्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते हैं। वह इस प्रकार है—जो उपशामक और क्षपक उत्कृष्ट योगके द्वारा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें छह कर्मोका बन्ध करता है उसके मोहनीय और आयुकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है तथा उत्कृष्ट योगसे सात कमका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर रहा है ऐसा चारों गतियोंमें स्थित संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिध्यादृष्टि जीव मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आयुकर्मके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिए। मात्र वह आठ कर्मोका बन्ध करनेवाला होना चाहिए। जघन्य स्वामित्वका विचार इस प्रकार है—जो तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें स्थित है और जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध कर रहा है ऐसा सूक्ष्म निगोदिया लयपर्याप्तक जीव आयुकर्मको छोड़कर सात कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव क्षुल्लक भवके तीसरे त्रिभागके प्रथम समयमें जपन्य योगसे आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध कर रहा है वह आयु कर्मके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी होता है। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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