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________________ २७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका एक वर्ग दूना होता है। प्रथम स्पर्धक और दूसरे स्पर्धककी चौड़ाई (विस्तार) बराबर है। मात्र द्वितीय स्पर्धकका आयाम प्रथम स्पर्धकके आयामसे विशेष हीन है। यद्यपि ऐसी स्थिति है फिर भी यह कथन एकदेश विकृतिको ध्यानमें न लेकर द्रव्यार्थिक नयसे किया गया है। इस प्रकार दो स्पर्धकोंके मध्य कितना अन्तर होता है इसका यह विचार है। आगेके स्पर्धकोंमें इसी विधिसे अन्तर जान लेना चाहिए । इस प्रकार एक जीवके सब प्रदेशोंमें जगत श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं। इन्हीं सबको मिलाकर एक योगस्थान कहलाता है । सब जीवोके नाना समयोंकी अपेक्षा ये योगस्थान भी जगत् श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाका विचार सुगम है। सब योगस्थान तीन प्रकारके हैं-उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धि-योगस्थान और परिणाम योगस्थान । इनमेंसे प्रारम्भके दो योगस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही है। सब परिणाम योगस्थानोंका जघन्य काल एक समय है । उत्कृष्ट काल अलगअलग है। किन्हीका दो समय है, किन्होका तीन समय है और किन्हीका अलग-अलग चार, पाँच, छह, सात और आठ समय है। ये सब योगस्थान अलग-अलग जगत् श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । तथा सब मिलाकर भी जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते है। उनमेंसे आठ समय वाले योगस्थान अल्प होते हैं। यवयमध्यके दोनों ही पार्श्व भागमें होने वाले योगस्थान परस्पर समान होकर भी उनसे असंख्यात गुणे होते हैं। इसी प्रकार छह, पाँच और चार समय वाले योगस्थानों के विषयमें जान लेना चाहिए । तीन और दो समय वाले योगस्थान मात्र ऊपरके पार्श्व भागमें ही होते हैं। इन योगस्थानोंमें चार वृद्धि और चार हानियाँ होती हैं । अनन्तभाग वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि तथा ये ही दो हानियाँ नहीं होती। इनमेंसे तीन वृद्धियों और तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। तथा असंख्यात गुण वृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त होता है। यहाँ प्रश्न है कि जिस प्रकार कर्म प्रदेशोंमें अपने जघन्यगुणके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा होती है उसी प्रकार यहाँ भी एक जीव प्रदेशसम्बन्धी जघन्य योगके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा क्यों नहीं होती ? समाधान यह है कि जिस प्रकार कर्म गुणमें अनन्तभाग वृद्धि पायी जाती है वैसा यहाँ सम्भव नहीं है, क्योंकि यहाँपर एक-एक जीव प्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण ही योग-अविभाग प्रतिच्छेद पाये जाते हैं, अनन्त नहीं। जीव दो प्रकारके हैं पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त । इनमेंसे उक्त दोनों प्रकारके जीवोंके नूतन भवग्रहणके प्रथम समयमें उपपाद योगस्थान होता है, भवग्रहणसे दूसरे समयसे लेकर लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके आयुबन्धके प्रारम्भ होनेके पूर्व समय तक तथा पर्याप्त जीवोंके शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धि योगस्थान होता है तथा आगे दोनोंके भवके अन्तिम समय तक परिणाम योगस्थान होता है। अल्पबहुत्वका विचार करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तका जघन्य सबसे स्तोक है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्यपर्याप्तका जघन्य योग असंख्यातगुणा है। उससे द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी और संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तकका जवन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यात गणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तका और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य योग क्रमसे असंख्यात गणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट योग क्रमसे असंख्यातगणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट योग क्रमसे असंख्यातगणा है। उससे द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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