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________________ २४८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ व्यापक सम्बन्ध नहीं है इसलिये घटका कर्ता कुम्भकार नहीं कहा जाता है। इसलिये उपादान कारण ज्ञान गुण होते हुए भी व्याप्यव्यापक और कार्यकारणसम्बन्ध होनेसे भावमनको पौद्गलिक मान लेने में विशेष कुछ आपत्ति नहीं है। नहीं तो वह आत्माका स्वाभाविक धर्म ठहर जावेगा। यदि दो वस्तुओंके संयोगजन्य कार्य और स्वतंत्र एक वस्तु के कार्यको ध्यानमें लाया जावं तो यह भेद उसी समय ध्यान में आ सकता है । अध्यात्मशास्त्रोंमें आपके निजस्वरूपके दिखानेका प्रयोजन रहता है। पुद्गलके निजस्वरूपके दिखानेका प्रयोजन नहीं है अतएव भावमन संयोगजधर्म होनेके कारण निश्चयदृष्टिसे वह आत्माका नहीं कहा जा सकता है । प्रत्येक संयोगजधर्ममें इसी दृष्टिको सामने रखने पर शुद्ध वस्तुका बोध हो सकता है। विचार करिये यदि कोई भी स्वरूपका चितवन करने वाला भव्य राग द्वेष जीवका है, मिथ्याज्ञान जीवका है, मतिज्ञान जीवका है, भावमन जीवका है, औपशमिकभाव जीवका है, गुणस्थान आदि जीवके है ऐसा चितवन करता रहे तो क्या उसे शुद्ध स्वरूपका बोध अथवा उसकी प्राप्ति हो सकती है? कभी नहीं स्वरूप प्राप्ति के लिये तो उसे दिव्यदृष्टि ही होना पड़ेगा। ये सब पर्यायदृष्टि विषय है इसलिये आत्माको सर्व कालीन ऐसा नहीं माना जा सकता है और जो जिसके सर्वकालं न नहीं होते हैं वे उसके नहीं कहे जा सकते हैं । भावमनके सम्बन्धमें भी यही समझना चाहिये । इसीसे कुम्भकार निमित्त होते हुए भी घट कुम्भकार क्यों नहीं कहा जाता है और भावपन पौद्गलिक क्यों कहा जाता है-इसका स्पष्ट खुलासा हो जाता है। रह गई धोके घटकी बात सो भी और घटका कोई व्याप्यव्यापक और कार्यकारण सम्बन्ध नहीं है उस भाव के लिये यह दृष्टांत उपयोगी नहीं है। 'भावमन पौगलिक है और पीका घटा इन दोनों वचनोंके व्यवहार करनेमें बड़ा भारी केवल आधार आधेय सम्बन्धसे घीका घड़ा यह वचन व्यवहार प्रवृत्त होता है कथनका खंडन नहीं होता है । -- अन्तर है। धीका घड़ा यहाँ पर अतएव ऐसे उदाहरणोंसे मूल भावमन क्षायोपशमिक भाव है यह तो पंडितजीको इष्ट ही होगा । अब हम यहाँपर यह पूछते हैं कि जब के भावमन आत्माका निजभाव है फिर उस क्षायोपशमिक ज्ञानको हेय क्यों बताया है। यदि आप कहेंगे वह सर्वथा निजभाव नहीं है तो फिर उसे पौद्गलिक मान लेनेमें आपत्ति ही क्यों होनी चाहिये । कि जल में सूर्यका प्रतिबिंब पड़ता है । अब यदि वह केवल जलका कहा जावे तो सूर्यके अभाव में भी जलमें सूर्यका प्रतिबिंब दिखना चाहिये ? परन्तु ऐसा नहीं होता है इसीलिये वह प्रतिबिम्ब सूर्यका कहा जाता है कारण प्रतिबिंब और सूर्यका व्याप्यव्यापक और कार्यकारण संबंध है। यहाँ पर यद्यपि फल उपादान कारण है फिर भी वस्तु मूलस्वरूपके लिये उपयुक्त कथन ही उपयोगी है। आशा है इससे पंडितजीको दूसरे दृष्टिकोणका पता लग जायेगा । तत्त्वार्थ सूत्रके दूसरे अध्यायका पहला सूत्र है - 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकश्च । तत्त्वार्थमुत्रके दूसरे अध्यायका पहिला सूत्र औपशमिकक्षायिको' इत्यादि है। इसमें औपशमिक आदि पाँच भाव जीवके स्वतः के स्वरूप है ऐसा भगवान् उमास्वामीने कहा है । 'स्वतत्त्वं आत्मनः स्वभावाः श्रद्धेयाः ' ऐसा स्वतत्त्व शब्दका खुलासा है । विचार -- पंडितजीने भावमनको क्षायोपशमिक भाव होनेके कारण तत्त्वार्थसत्रका उल्लेख करके आत्माका निजभाव कहा है इसका हम निषेध भी तो नहीं करते हैं । परन्तु यह कथन पर्याय दृष्टिसे है । इधर पंडितजीका लक्ष्य ही नहीं जाता है और इसलिये अध्यात्म शास्त्रों में दिव्यदृष्टिसे प्रतिपादित विषयको वे सबंधा भुला देना चाहते हैं। हम पंडितजीसे ही पूछते हैं कि ये अदायिक क्षायोपशमिक आदि भाव यदि सर्वथा जीव Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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