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________________ भावमन और द्रव्यमन भावमन आत्माका स्वभाव नहीं है। वह ज्ञानकी एक पर्याय है जो लबियरूप भी है और उपयोगरूप भी। ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशम रूप होनेके कारण उसे संयोगज माना गया है। अतः भावमन विभाव भाव है। यहाँ आत्मा ही भावमनका आत्मा ही उपादान कारण है; द्रव्यमन उपादान कारण नहीं है। क्योंकि द्रव्यमन पुद्गल की पर्याय है और अंगोपांग नामकर्मके उदयके निमित्तसे उसकी रचना हुई है। जैसे मिट्रीके घड़में मिट्टी उसका उपादान कारण है, वैसे ही ज्ञान (आत्मा) ही भावमनका उपादान कारण है । 'घी का घड़ा लाओ' यह कहना व्यवहार है । यहाँ जैसे घी के निमित्तसे घड़ेको घी का घड़ा कहा जाता है, वैसे ही भावमनके निमित्त से द्रव्यमनको भी मन कहनेका व्यवहार है। सिद्धान्त शास्त्रोंमें उपादान कारणकी मुख्यतासे भावमन ज्ञानात्मक कहा जाता है इसमें किसीका भी विरोध नहीं है। परन्तु अध्यात्म शास्त्रोंमें कार्य-कारण और व्याप्य-व्यापक सम्बन्धकी मुख्यतासे भावमनको पौद्गलिक कहा गया है । यदि ऐसा न माना जाय और इसकी उपेक्षा की जाय तो इससे तत्त्वहानिकी सम्भावना है । प्रमाणके लिए आचार्योंके वाक्य उद्धृत हैं “मिथ्यादष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति निन्यमचेतनत्वात् कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्विका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गला एव, न तु जीवः। जो ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान हैं वे पुद्गलरूप मोहकमकी प्रकृतिके उदय होनेसे होते हैं इसलिये नित्य ही अचेतन है क्योंकि जैसा कारण होता है उसीके अनुसार काम होता है जैसे-जैसे जो होते हैं वे यव ही है इसी न्यायकर वे पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं । यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादि रूपेणांतरुत्प्लवमानं कर्मणः परिणामं स्पर्शरसगंधवर्णशब्दबंधसंस्थानस्थौल्यसौम्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि परमार्थतः पुद्गलपरोणामपुद्गलयोरेव घटमृत्ति कयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात् कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनार्घटकुम्भकारयोरिव व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा । __निश्चयकर मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि स्वरूपकर अंतरंगमें उत्पन्न होता है वह तो कर्मका परिणाम है और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थौल्य, सूक्ष्म आदि रूपकर बाहर उत्पन्न होता है वह नोकर्मका परिणाम है । इस प्रकार ये सभी, परमार्थसे पुद्गल और पुद्गल परिणामका ही घट और मिट्टीके समान व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्वतन्त्र व्यापक कर्तारूप पुद्गल द्रव्यके द्वारा स्वयं व्याप्यमान होनेके कारण कर्मके ही कार्य समझना चाहिये । पुद्गल परिणाम राग द्वेषादि और कुम्भकारकी तरह व्याप्यव्याप्यकभाव नहीं होनेके कारण कार्यकारणभाव सिद्ध न हो सकनेसे इन राग द्वेषादिका कर्ता आत्मा नहीं हो सकता है। ___इससे यह पता चल जाता है कि द्वेष आदि भावोंका उपादान कारण आत्माका चारित्र गुण होते हुए भी वे स्वतंत्र आत्माके न होनेके कारण और पुद्गल कर्मके साथ उनका व्याप्यव्यापक सम्बन्ध होनेके कारण वे पुद्गलके कहे जाते हैं उसी प्रकार भावमनका उपादान कारण आत्माका ज्ञान गुण होते हुए भी भावमन स्वतंत्र आत्मामें उपलब्ध न होनेके कारण और पुद्गलके साथ उसका व्याप्यव्यापकसम्बन्ध होनेके कारण भावमन यह पौद्गलिक कहा जाता है । घटोत्पत्तिमें निमित्त यद्यपि कुम्भकार है फिर भी कुम्भकार और घटका व्याप्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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