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________________ अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं तुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा । अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियार्त्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी ||३३|| आपने (जिनदेवने) यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वयसे उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसो यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणी 'मैं इस कार्यको कर सकता हूँ' इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित है वह उस भवितव्यता) के बिना अनेक प्रकारके अन्य कारणोंका योग मिलने पर भी कार्योंके सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता । चतुर्थखण्ड : २१५ उपादानरूप योग्यतानुसार कार्य होता है इसका समर्थन भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक (अ० १ सूत्र २० ) में इन शब्दों में करते हैं यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दंड - चक्र - पौरुषेय - प्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति, यतः सत्स्वपि दंडादिनिमित्तेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामनिरुत्सकत्वान्न घटीभवति, अतो मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्व भवति । जैसे मिट्टीके स्वयं भीतरसे घटभवनरूप परिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुषकृत प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं, क्योंकि दण्डादि निमित्तोंके रहनेपर भी बालुकाबहुल मिट्टीका पिण्ड स्वयं भीतरसे घटभवनरूप परिणाम (पर्याय) से निरुत्सुख होने के कारण घट नहीं होता, अतः बाह्यमें दण्डादि निमित्तसाक्षेप मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घटभवनरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि घट नहीं होते, इसलिए दण्डादि निमित्तमात्र हैं । इस प्रकार इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि उपादानगत योग्यता के कार्यभवनरूप व्यापारके होनेपर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता । ऐसे परिणमनकी क्षमता प्रत्येक द्रव्यमें होती है । जीवके इस परिणमन करनेरूप व्यापारको पुरुषार्थ कहते हैं । यदि तत्त्वार्थवार्तिक उक्त उल्लेखपर बारीकी से ध्यान दिया जाता है तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्ति के अनुकूल कुम्हारका जो व्यापार होता है वह भी निमित्तमात्र होता है, वास्तव में कर्ता निमित्त नहीं । उनके 'निमित्तमात्र है' ऐसा कहने का भी यही तात्पर्य है । सब कार्य स्वकालमें ही होते हैं इसे भी भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक (अ० १, सूत्र० ३ ) में स्वीकार किया है । वह प्रकरण निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनका है । इसी प्रसंगको लेकर उन्होंने सर्वप्रथम यह शंका उपस्थित की है- भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपत्तेः अधिगमसम्यक्त्वाभावः । ७। यदि अवधृतमोक्षकालात् प्रागधिगमसम्यक्त्वबलात् मोक्षः स्यात् स्यादधिगमसम्यग्दर्शनस्य साफल्यम् । न चादोऽस्ति । अतः कालेन योsस्य मोक्षोऽसौ निसर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति । इस वार्तिक और उसकी टीकामें कहा गया है कि यदि नियत मोक्षकालके पूर्व अधिगमसम्यक्त्व के बलसे मोक्ष होवे तो अधिगमसम्यक्त्व सफल होवे । परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिए स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है वह निसर्गज सम्यक्त्व से ही सिद्ध है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भट्टाकलंकदेवने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्य जीवको उसकी मोक्ष प्राप्तिका स्वकाल आतेपर मुक्तिलाभ अवश्य होता है । इससे सिद्ध है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं, आगे पीछे नहीं होते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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