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________________ २१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अनन्त है और जो भव्य जीव है उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि होकर भी सान्त है। किन्तु जब इस जीवके शुद्धि शक्तिकी व्यक्तिका स्वकाल आता है तब यह जीव अपने स्वभाव सन्मुख होकर पुरुषार्थ द्वारा उसकी व्यक्ति करता है, इसलिए शुद्धि शक्तिकी व्यक्ति सादि है। यहाँ पर जो अशुद्धि शक्तिकी व्यक्तिको अनादि कहा गया है सो वह कथन सन्तानपने की अपेक्षासे ही जानना चाहिए, पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा तो उसकी व्यक्ति प्रति समय होती रहती है। जिससे प्रत्येक संसारी जीवके प्रति समयसम्बन्धी भावसंसाररूप सष्टि होती है। यहाँ पर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि ये दोनों शक्तियाँ जीवकी हैं तो इनमेंसे एककी व्यक्ति अनादि हो और दूसरेकी व्यक्ति सादि हो इसका क्या कारण है ? समाधान यह है कि इनका स्वभाव ही ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है। इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिए आचार्य महाराज ने पाक्यशक्ति और अपारयशक्तिको उदाहरणरूपमें उपस्थित किया है। आशय यह है कि जिस प्रकार वही उड़द अग्निसंयोगको निमित्त कर पकता है जो पाक्यशक्तिसे युक्त होता है। जिसमें अपाक्यशक्ति पाई जाती है वह अग्निसंयोगको निमित्त कर त्रिकालमें नहीं पकता ऐसी वस्तुमर्यादा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए । इस दृष्टान्तको उपस्थित कर आचार्य महाराज यही दिखलाना चाहते हैं कि प्रत्येक द्रव्यमें आन्तरिक योग्यताका सद्भाव स्वीकार किये बिना कोई भी काय नहीं हो सकता। उसमें भी जिस योग्यताका जो स्वकाल (समर्थ उपादानलक्षण) है उसके प्राप्त होने पर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता। इससे यदि कोई अपने पुरुषार्थकी हानि समझे सो भी बात नहीं है, क्योंकि जीवके किसी भी योग्यताको कार्यका आकार पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त होता है। जीवको प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में पुरुषार्थ अनिवार्य है। उसकी उत्पत्तिमें एक कारण हो और अन्य कारण न हों ऐसा नहीं है। जब कार्य उत्पन्न होता है तब अन्य निमित्त भी होता है, क्योंकि जहाँ निश्चय (उपादान कारण) है वहाँ व्यवहार (निमित्त कारण) होता ही है। इतना अवश्य है कि मिथ्यादृष्टि जीव निश्चयको लक्ष्य में नहीं लेता और मात्र व्यवहार पर जोर देता रहता है, इसीलिए वह व्यवहाराभासी होकर अनन्त संसारका पात्र बना रहता है। ऐसे व्यवहाराभासीके लिए पण्डितप्रवर दौलतरामजी छहढालामें क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़ियेः कोटि जनम तप तपें ज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानीके छिनमें त्रिगुप्तितें सहज टरें ते ।। मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो ।। जैसा कि हम पहले लिख आए हैं भविव्यता उपादानकी योग्यताका ही दूसरा नाम है । प्रत्येक द्रव्यमें कार्यक्षम भवितव्यता होती है इसका समर्थन करते हुए स्वामी समन्तभद्र अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें कहते हैं: १. यहाँ पर जीवोंके सम्यग्दर्शनादिरूप परिणाम शद्धि शक्तिके अभिव्यंजक है और मिथ्यादर्शनादिरूप परि णाम अशुद्धिशक्तिके अभिव्यंजक है इस अभिप्रायको ध्यानमें रखकर यह व्याख्यान किया है। वैसे शुद्धिशक्तिका अर्थ भव्यत्व और अशुद्धि शक्तिका अर्थ अभव्यत्व करके भी व्याख्यान किया जा सकता है। भद्र अकलंकदेवने अष्टशतीमें और आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें सर्वप्रथम इसी अर्थको ध्यानमें रखकर व्याख्यान किया है। इसी अर्थको ध्यानमें रखकर आचार्य अमृतचन्द्रने पञ्चास्तिकाय गाथा १२० की टीकामें यह वचन लिखा है--संसारिणी द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भ शक्तिसदभावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयन्त इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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