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________________ .२१२: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थितिके जिस प्रकार कषायादिस्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक उक्त जघन्य स्थितिके भी कषायादिस्थान जानने चाहिये । और इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे तीस कोड़ा-कोडी सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थितिके कषायादिस्थान जानने चाहिये । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कार्यका नियामक मुख्यतासे निश्चय उपादानको मानना ही आगम सम्मत है इसमें किसी प्रकारके सन्देह के लिए स्थान नहीं है। ११ पाँच हेतुओंका समवाय । साधारण नियम यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें ये पाँच कारण नियमसे होते हैं । स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, नियति और कर्म । यहाँ पर स्वभावसे द्रव्यकी स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थसे जीवका बल-वीर्य लिया गया है, कालसे स्वकाल और परकालका ग्रहण किया है, नियतिसे समर्थ उपादान या निश्चयकी मुख्यता दिखलाई गई है और कर्मसे बाह्य निमित्तका ग्रहण किया गया है । इन्हीं पाँच कारणोंको सूचित करते हुए पंडितप्रवर बनारसीदासजी नाटकसमयसार सर्वशुद्ध ज्ञानाधिकारमें कहते हैं पद सुभाव पूरब उदे निहचे उद्यम काल । पच्छपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल ।। ४१।। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें पाँच प्रकारके एकान्तवादियोंका कथन आता है। उसका आशय इतना ही है कि जो इनमेंसे किसी एकसे कार्यकी उत्पत्ति मानता है वह मिथ्यादृष्टि है और जो कार्यकी उत्पत्तिमें इन पाँचोंके समवायको स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है । पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने उक्त पद द्वारा इसी तथ्यकी पुष्टि की है। अष्टसहस्री १० २५७ में भट्टाकलंकदेवने एक श्लोक दिया है। उसका भी यही आशय है । श्लोक इस प्रकार है तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ।। जिस जीवकी जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है । वह प्रयत्न भी उसी प्रकारका करने लगता है और उसे सहायक भी उसीके अनुसार मिल जाते हैं । - इस श्लोकमें भवितव्यताको मुख्यता दी गयी है। भवितव्यता क्या है ? जीवकी समर्थ उपादान शक्तिका नाम ही तो भवितव्यता है। भवितव्यताकी व्युत्पत्ति है- भवितुं योग्यं भवितव्यम्, तस्य भावः भवितव्यता । जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है । जिसे हम योग्यता कहते हैं उसीका दूसरा नाम भवितव्यता है । द्रव्यकी समर्थ उपादान शक्ति कार्यरूपसे परिणत होनेके योग्य होती है इसलिए समर्थ उपादान शक्ति, भवितव्यता और योग्यता ये तीनों एक ही अर्थको सूचित करते है । कहीं-कहीं अनादि या नित्य उपादानको भी भवितव्यता या योग्यता शब्द द्वारा अभिहित किया गया है सो प्रकरणके अनुसार इसका उक्त अर्थ करनेमें भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि भवितव्यतासे उक्त दोनों अर्थ सूचित होते हैं । भव्य और अभव्यके भेदमें भवितव्यता भी इसीका नाम है। उक्त श्लोकमें भवितव्यताको प्रमुखता दी गयी है और साथमें व्यवसाय-पुरुषार्थ तथा अन्य सहायक सामग्रीका भी स्चन किया है सो इस कथन द्वारा उक्त पाँचों कारणोंका समवाय होनेपर कार्यकी सिद्धि होती है यही सूचित होता है, क्योंकि स्वकाल उपादानकी विशेषता होनेसे भवितव्यतामें गभित है ही। १. देखो गाथा ८७९ से ८८३ तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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