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________________ चतुर्थ खण्ड : २११} ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अन्तरंगकारणावेक्खाए पवत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो । -धवला पु० १२, पृ० ८१ । प्रत्येक कार्य बाह्य कारण के अनुसार ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारणकी अपेक्षा प्रवृत्त हुए कार्योंका बहिरंग कारगके अनुसार प्रवृत्त होनेका नियम नहीं बन सकता। पाँच परिवर्तनोंमेंसे भाव परिवर्तनके स्वरूपपर दृष्टिपात करनेसे भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यमें उसका अन्तरंग कारण ही मुख्य है । यथा पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यादृष्टिः कश्चिज्जीवः, स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तः कोटीकोटीसंज्ञकामापद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोव प्रमितानि षट्स्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति । एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं कसायाध्यवसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभागाध्यवसायस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति । तेषामेव स्थिति-कषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं च तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा च तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितोयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्ते । एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्विती कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्ययलोकपरिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्यः । एवं उक्तायाः अघन्यायाः स्थितेस्त्रिशत्सागरोपमकोटीकोटीपरिसमाप्तायाः कषायादिस्थानानि वेदितव्यानि । पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिको सबसे जघन्य अपने यो य अन्तःकोटाकोटिप्रमाण स्थितिको बाँधता है। उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थानपतित असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसायस्थान होते है। और सबसे जघन्य इस कषायाध्यवसायस्थानके निमित्तरूप असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागाध्यवसायस्थानको प्राप्त हुए इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है । तत्पश्चात् स्थिति, कषायाध्यवसायस्थान और अनुभागाध्यवस्थायस्थानके जघन्य रहते हुए दूसरा योगस्थान होता है जो असंख्यात भागवृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्थानोंकी अपेक्षा भी समझना चाहिये। ये सब योगस्थान अनन्त भागवृद्धि और अनन्तगुण वृद्धिको छोड़कर शेष चार स्थानपतित ही होते हैं, क्योंकि सब योगस्थान संख्यामें श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तदनन्तर उसी जघन्य स्थिति और उसी जघन्य कषायाध्यवसायस्थानको प्राप्त हुए जीवके दूसरा अनुभागाध्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पहलेके समान जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये। इस क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि अनुभागाध्यसायस्थानोंका यही क्रम जानना चाहिये । तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त हुए जीवके दूसर! कषायाध्यवसानस्थान होता है। इसके भी अनुभागाध्यवसायस्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिये । इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि कषायाध्यवसायस्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिये । यहाँ उक्त जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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