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________________ २०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वह व्यवहार, सविकल्प अवस्था में निश्चय सम्यग्दर्शन स्वरूप आत्मशुद्धिका अविनाभावी है यह प्रकृतमें व्यवहार नयके हस्तावलम्बनका तात्पर्य है । वह व्यवहारनयके विषयमें आँख मीच कर सर्वथा गड़गप्प हो जाता है ऐसा उसका तात्पर्य नहीं है। यह तो ठीक है कि समयसार परमागम गुणस्थान आदिके भेदसे मोक्षमार्गका स्वरूप निर्देश नहीं किया गया है । अतः उक्त तथ्यके समर्थनमें हम आगमकी सप्रमाण चर्चा कर लेना आवश्यक समझते हैं इसके पहले हम सर्वार्थसिद्धिको ही लेते हैं तद् द्विविधम्, सराग-वीतरागविषयभेदात् । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है--सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला प्रथम सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धिमात्र दूसरा सम्यग्दर्शन है। सूत्र १-२ । तत्त्वार्थवातिकमें भी उक्त प्रकारसे सम्यग्दर्शनके दो भेद और लक्षण निबद्ध किये गये हैं । उनकी विशेष व्याख्या करते हुए लिखा है रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः, संसाराद् भीरुता संवेगः, सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा, जीवादयोऽर्थाः यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम् ।..""सप्तानां कर्मप्रकृतीनां आत्यन्तिके पगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरत् वीतरागसम्यक्त्वमिप्युच्यते ।-सू० १-२।। रागादिकका विशेषरूपसे प्रकट नहीं होना प्रशम है, संसारसे डरना संवेग है, प्राणीमात्रमें मैत्रीभाव अनुकम्पा है और जीवादि पदार्थोंका जैसा स्वरूप है वे उसी रूप हैं ऐसी मतिका होना आस्तिक्य है".""सात कर्म प्रकृतियोंके अत्यन्त अभाव होने पर जो आत्मामें विशुद्धि विशेष प्राप्त होती है वह दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। सूत्र १-२ । तत्त्वार्थवाति कमें इस उल्लेखको देखकर कितने ही विद्वान् क्षायिक सम्यग्दर्शनरूपसे प्राप्त हुई आत्मविद्धिको ही वीतराग सम्यग्दर्शन स्वीकार करते हैं । वे सम्यग्दर्शनके व्यवहारसे प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि सात प्रकतियोंके उपशम और क्षयोपशमसे प्राप्त हुई आत्म विशुद्धिकी किस सम्यग्दर्शनमें परिगणना करते है वे ही जानें । अस्तु, अब यहाँ वस्तु-स्थिति क्या है इसकी मीमांसा करनेके लिए सर्वप्रथम तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें क्या कहा है इस पर विचार करते हैं। उसमें भी सर्वप्रथम प्रशमादिके स्वरूपका निर्देश करते हुए कहा है तत्रानन्तानुबन्धीनां रागादीनां मिथ्यात्व-सम्य ग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेकः प्रशमः । द्रव्य-क्षेत्र-कालभव-भावपरिवर्तनरूपात् संसाराद् भीरुता संवेगः । त्रसस्थावरेषु प्राणिषु दयानुकम्पा । जीवादितत्त्वार्थेषु युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धेषु याथात्म्योपगमनमास्तिक्यम् । एतानि प्रत्येक समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि परत्र काय-वाग्व्यवहारविशेषलिंगानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयन्ति । -पृ० ८६ ।। वहाँ अनन्तानुबन्धीरूप रागादिकके तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुद्रेकको प्रशम कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकारके परिवर्तनरूप संसारसे भीरुताको संवेग कहते हैं । त्रस और स्थावर प्राणियोंमें दयाका होना अनुकम्पा है। तथा युक्ति और आगमसे अविरुद्ध जीवादि पदार्थोंमें यथार्थपनेको प्राप्त होना आस्तिक्य है । ये प्रत्येक मिलकर स्वयंमें स्वसंविदित होकर तथा अन्य जीव में शरीर और वचनके व्यवहार विशेष प हेतुसे अनुमित होकर सराग सम्यग्दर्शनको ज्ञापित करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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