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________________ चतुर्थ खण्ड : २०७ यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र-पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति । जैसे मिट्टीके स्वयं भीतरसे घटपरिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुष प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं। इस उल्लेखसे हम जानते हैं कि विवक्षित कार्यको जन्म देने की शक्ति निश्चय उपादनमें ही होती है, अन्य बाह्य पदार्थ असद्भूत व्यवहारसे ही निमित्तमात्र होते है। उनमें निश्चय उपादानके कार्यको जन्म देनेकी योग्यता या भवितव्य तो नहीं ही होती, पर उनमें व्यवहार-हेतुता वश ऐसा व्यवहार कर लिया जाता है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि व्यवहार-निश्चयका योग सुनिश्चितरूपसे होता रहता है। इनमें अनियम मानना एकान्त है। शंका-निश्चय सम्यग्दर्शनके विषय में कुछ लोग कहते हैं कि सातवें गणस्थानसे होता है । कछ ग्यारहवें गुणस्थानसे मानते हैं और कुछ तेरहवें गुणस्थानसे भी मानते हैं। पर आप तो चौथे गुणस्थानसे ही उसे स्वीकार करते हैं सो इस विषयमें आगम क्या है ? समाधान-(१) सर्व प्रथम हम श्री परमागम समयसार शास्त्रको ही लेते हैं। शुद्धनयकी व्याख्या करते हुए वहाँ कहा है जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुढें अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४|| जो आत्माको अबद्ध अस्पृष्ट अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त अनुभवता है उस आत्मको शुद्धनय जानो ।।१४।। आत्मख्याति टीकामें इसकी व्याख्या करते हए लिखा है यः खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्ध नयः । सा त्वनुभूतिरात्मेत्यात्मक एव प्रद्योतते । परमार्थसे अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माकी जो अनुभूति होती है वह शुद्धनय है और वह अनुभति आत्मा ही है इस प्रकार एक आत्मा ही प्रकृष्टरूपसे अनुभवमें आता है। पहले इसी शास्त्रकी छठवीं गाथाकी टीकाम त्रिकाली स्वभावभूत आत्माकी व्याख्या करते हए बतलाया है-आत्मा स्वतःसिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त है, सतत उद्योतस्वरूप है विशद ज्योति है और स्वरूपसे ज्ञायक है। इस प्रकारके आत्माकी अनुभूतिको प्रकृतमें सम्यग्दर्शन कहा है। इतना ही नहीं, उसे आत्मा ही कहा है। ऐसा कहनेका कारण है, वह यह कि ऐसी निरन्तर भावना करनेसे करणानुयो गके अनुसार जिसके दर्शन मोहनीयको तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो गया है, वह श्रद्धामें उपचार व्यवहार और भेदव्यवहार दोनोंसे मुक्त हो जाता है। तथा उसके मुख्यरूपसे उक्त प्रकारके एक आत्माकी भावनाको छोड़कर अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है । यहाँ उक्त प्रकारको अनुभूति और आत्मामें अभेद होनेसे उक्त स्वानुभूतिको ही आत्मा कहा है यह इस कथनका तात्पर्य है । संसारी आत्मा ऐसो दृष्टि मुक्तिस्वरूप भावनाको अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानमें हो प्राप्त हो जाता है, इसीलिए आगमके रहस्यको स्वीकार करनेवाले चतुर्थ गुणस्थानसे ही निश्चय सम्बग्दर्शनको स्वीकारते हैं। यहाँ उसके होनेवाली मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप सविकल्प अवस्थाको ही जिनागममें प्राक् पदवी शब्दसे सम्बोधित किया गया है। सविकल्प अवस्थामें जबतक उसके ऐसा व्यवहार बना रहता है, जब तक निश्चय सम्यग्दर्शनके साथ बने रहनेसे आत्माका पतन नहीं होता, क्योंकि ऐसे व्यवहारके विरुद्ध जब तक उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नहीं होता तब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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