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________________ २०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ सहायकरूपसे जिसने मकान, धनसम्पदा आदिको प्रमुख स्थान दे रखा है वह तो वीतराग मोक्षमार्गका अधिकारी किसी भी अवस्थामें नहीं हो सकता, जो व्रती होनेपर भी उनके अहंकारसे ग्रस्त है वह भी उक्त प्रकारके मोक्षमार्गका अधिकारी नहीं हो सकता। हाँ जिसकी स्वभावसे विषयोंमें अरुचि हो गई है और जो बाह्याभ्यन्तर परिग्रहके बड़प्पनसे मुक्त है वही वीतरागमय संवररूप होनेका अधिकारी है। दूसरी बात यह स्पष्ट हो जाती है कि बाह्य निमित्त अन्यके कार्यका किंचित्कर तो होता नहीं। मात्र बाह्य व्याप्तिवश अन्यके कार्यकी बाह्य भूमिका कैसी रहती है इसका स्पष्टीकरण करके विवक्षित कार्यके होनेकी सूचना करता रहता है। इसका आशय यह है कि वीतरागरूप कार्य हो तो ही व्रतादिकमें निमित्त का व्यवहार है, अन्यथा नहीं। श्वेताम्बर परम्परासे दिगम्बर परम्परामें यही मौलिक भेद है। श्वेताम्बर परम्पराका कहना है कि व्यवहाररूप व्रतोंका पालन करते-करते परमार्थ स्वरूप निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है। वे यह भी कहते हैं कि मूर्छाका त्याग अपरिग्रहव्रत है, वस्त्रादिकका ग्रहण-त्याग परिग्रह नहीं है। किन्तु यह आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है कि वस्त्रादिकके ग्रहण-त्यागकी इच्छाके बिना उनका ग्रहण-त्याग नहीं हो सकता । यदि ऐसी इच्छाके बिना भी उनका ग्रहणत्याग होता है तो मकान आदि दश प्रकारके बाह्य त्यागकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है । और फिर प्रत्येक गृहस्थ बाह्य दश प्रकारके परिग्रहकी मर्यादा करके शेषका त्याग ही क्यों करें और बाह्य परिग्रहका पूर्ण त्याग करके तथा इसके साथ उसमें मूर्छा न रखकर साधु ही क्यों बने । फिर तो सम्पूर्ण परिग्रहके सद्भावमें साधु कहलानेमें आपत्ति ही क्यों मानी जाय । पिछी, कमण्डलु और शास्त्र भी परिग्रह है इसमें सन्देह नहीं । फिर भी चरणानुयोग परमागममें प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर उनके ग्रहणका उपदेश है। उसमें भी शास्त्रके लिए यह नियम है कि स्वाध्यायकी दृष्टिसे १-२ शास्त्रोंको ही साधु स्वीकार करे और उनका स्वाध्याय पूरा होनेपर उनको भी जहाँ स्वाध्याय पूरा हो जाय वहीं विसर्जित कर दे । किन्तु इन तीनको छोड़कर ऐसा कोई कारण तो नहीं दिखलाई देता कि वह उन्हें स्वीकार करे । इस विवेचनसे स्पष्ट है कि जितने भी बाह्य निमित्त आगममें कहे गये हैं वे अन्य द्रव्यके कार्यों के बाह्य निमित्त होकर भी परमार्थसे उनके कार्योंके अणुमात्र भी कर्ता नहीं होते। मात्र उनमें लौकिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर अहं कर्ता इस प्रत्ययसे ग्रसित और कार्यों के लिये प्रयत्नशील अज्ञानी जीवोंमें ही कर्तापनेका व्यवहार किया जाता है, अन्यमें नहीं। देखो, यह शुभ राग और निश्चय रत्नत्रय एक आत्मामें अपने अपने कारणोंसे एक साथ जन्म लेते है, पर जहाँ शुभ भावको ही वोतराग भावका कर्ता स्वीकार नहीं किया गया वहाँ अत्यन्त भिन्न बहिर्द्रव्य अन्यके कार्यका कर्ता कैसे हो सकता है। इस विषयको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए समयसार मोक्ष अधिकारीकी ये सूत्रगाथाएँ द्रष्टव्य हैं बंधाणं च सहावं वियाणिओ अप्पणो सहावं च । बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणइ ।।२९३।। जीवो कम्मं य तहा छिज्जति सलक्खहेहि णियएहिं । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा णाणत्तमावण्णा ।।२९४।। बन्ध (राग) के स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धों (रागादि भावों) से जो विरक्त होता है वह कर्म (रागादि भावों) से विरक्त हो जाता है ॥२९३॥ जीव और रागादिरूप बन्ध अपने-अपने स्वलक्षणोंके द्वारा इस प्रकार छेदे जाते हैं जिससे वे प्रज्ञारूपी छनीसे छिन्न होकर नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं ।।२९४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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