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________________ चतुथं खण्ड : १९३ 'स्वरूपमें रमना चारित्र है' चारित्रका यह लक्षण किया है। यतः चारित्र सम्यग्दर्शनका अविनाभावी है. इसी लिये आगम में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमेंसे प्रत्येकके लक्षणके साथ स्वरूप लाभको अविनाभावी स्वीकार किया गया है । स्वरूप लाभ न हो और सम्यग्दर्शन आदि परिणाम हो जायँ ऐसा नहीं है । शुभाचारको चरणानुयोग शास्त्र स्वयं मोक्षप्राप्ति में बाह्य निमित्तरूप से स्वीकार करता है । इसलिए यही तथ्य फलित होता है कि ज्ञानीकी दृष्टि सर्वदा सविकल्प अवस्था में भी आत्मस्वरूप पर ही रहती है । वह स्वयं शुभाचारको संसारका प्रयोजक होनेसे अपना अपराध ही मानता रहता है, क्योंकि ऐसी दृष्टिके बिना उसका, शानी कहो, सम्यग्दृष्टि कहो, अध्यात्मवृत्त कहो, अन्तरात्मा कहो या स्वसमय कहो, होना नहीं बन सकता । इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकमें साभिप्राय जितने भी कार्य होते हैं उनकी प्रायोगिक संज्ञा है, शेष सब कार्य वैखसिक कहलाते हैं। २. उभयरूपसे निमित्त शब्दका प्रयोग साधारणतः निमित्त शब्द कारण, उपाधि, साधन वा हेतुवाची स्वीकार किया गया है। यह बाह्यकारण और उपादान दोनोंके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यथा द्रव्यस्य निमित्तवशात् उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते । -स० वा० अ० ५ सू० २२ । द्रव्यके दोनों बाह्य और आभ्यन्तर ( उपादान) निमित्तोंके वशसे उत्पन्न होनेवाले परिस्पन्दका नाम क्रिया है ऐसा निश्चित होता है। क्रियाके इस लक्षण व्यवहार हेतुके साथ निश्चय उपादानके लिए भी निमित्त शब्द व्यवहृत हुआ है । 7 कहीं इन दोनोंके लिए बाह्य और आभ्यन्तर हेतु संज्ञा भी व्यवहृत हुई है (त० वा० अ० २ सू० ८), तथा कहीं बाह्य और इतर उपाधि संज्ञा भी प्रयुक्त हुई है ( स्व० स्तो० श्लो० ५९ ) । इन उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लौकिक या परमार्थ स्वरूप जो भी कार्य होता है उसमें व्यवहार हेतु और निश्चय हेतुका सन्निधान अवश्य होता है । यतः निश्चय हेतु ( निश्चय उपादान) कार्य द्रव्यका ही एक अव्यवहित पूर्व रूप है, इसलिये वह नियमसे कार्यका नियामक स्वीकार किया गया है। किन्तु व्यवहार हेतु कार्यका अविनाभावी है, इसलिये मात्र व्यवहारसे उसे कार्यका नियामक कहा जा सकता है । फिर भी वह निश्चय हेतुका स्थान नहीं ले सकता । इन दोनों में विन्ध्य-हिमगिरिके समान महान् अन्तर है - 'अन्तरं महदन्तरम्' क्योंकि निश्चय हेतु कार्य द्रव्यके स्वरूपमें अन्तर्निहित है और व्यवहार हेतु बाह्य वस्तु है, इसलिये इन दोनोंमें महान् अन्तर होना स्वाभाविक है, निश्चय हेतु कार्य द्रव्यका पूर्व रूप होनेसे सद्भूत है और व्यवहार हेतु कार्य द्रव्यसे भिन्न होनेके कारण उसमें असद्भूत है । ३. शंका-समाधान शंका- जब उक्त दोनों ही हेतु कार्यके प्रति गमनयसे स्वीकार किये गये है तब दोनोंका दर्जा एक समान माननेमें क्या आपत्ति है ? समाधान - आगम में सद्भूत और असद्भूत व्यवहारके भेदसे नैगमनय दो प्रकारका स्वीकार किया गया है । यत बाह्य वस्तु निमित्तता असदभूत व्यवहारनवसे स्वीकार की गई है और निश्चय उपादानमें कार्यके प्रति हेतुता सद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार की गई है, अतः इन दोनोंको एक समान दर्जा नहीं दिया जा सकता है । मात्र हेतुता सामान्य की दृष्टिसे दोनों ही समान हैं। आशय यह है कि यह इसका कार्य है २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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