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________________ १९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ज्ञानी के मिथ्यात्वरूप भाव तो होता ही नहीं । नौवें गुणस्थान तक द्वेष और दशवें गुणस्थान तक रागका सद्भाव होनेसे वह उनका स्वामी नहीं है, इसलिये उसके राग और द्वेषका सद्भाव अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार किया गया है । अतः राग-द्वेष के कारण जो कर्मबन्ध होता है स्वभाव सन्मुख होनेसे ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक वह नहीं होता । अबुद्धिपूर्वक होनेवाले राग-द्वेष और उदयके साथ ही उसका अविनाभाव सम्बन्ध है | और यह ठीक भी है, क्योंकि संसारके जितने भी कार्य हैं उनमें ज्ञानीका स्वामित्व न रहने से उन सबको उसके अबुद्धिपूर्वक स्वीकार करना ही न्यायोचित है । वह दृष्टिमुक्त होनेसे मुक्त ही है, क्योंकि उसने पर्यायमें परमात्मा बननेके द्वार में प्रवेश कर लिया है । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानी के संसार के सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते ही नहीं, इसलिये परमागमने अज्ञानी के योग और विकल्पके साथ ही उनकी व्याप्ति स्वीकार की है । यतः ऐसे ही कार्योंके साथ अज्ञानीके बुद्धि (अभिप्राय) पूर्वक कर्तृत्व घटित होता है, अत आचार्योंने इन्हीं कार्यों को प्रायोगिक स्वीकार किया है । इनके सिवाय अन्य जितने भी कार्य होते हैं वे सब विस्रसा ही स्वीकार किये गये हैं । शंका- यहाँ पर ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक रागादि भावोंका अभाव बतलाया है सो यह बात हमारे समझमें नहीं आती, क्योंकि ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ रहनेमें आत्माको किसी प्रकारको क्षतिको आगम स्वीकार नहीं करता । हम देखते हैं कि सविकल्प अवस्थामें ज्ञानीके गृहस्थ अवस्थाके सभी कार्य तथा भावलिंगी सन्त के भी २८ मूलगुणों का पालन, आहारादिका ग्रहण, तत्त्वोपदेश, शिष्योंका ग्रहण- विसर्जन, गुरुसे अपने द्वारा किये गये दोषोंकी निन्दा गर्हापूर्वक प्रायश्चित्त लेना आदि सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं । कर्ता-कर्म अधिकार में भी जिस द्रव्यका जब जो परिणाम होता है उस समय उस द्रव्यका कर्त्ता उस द्रव्यको हो स्वीकार किया गया । अतः राग-द्वेषादि भाव जीवोंकी ही पर्याय है । जीव हो स्वयं उसरूप परिमता है, इसलिये प्रकृतिमें ऐसे जीवको एक तो निरास्रव मानना उचित नहीं है । दूसरे ज्ञानी के भी श्रावक और भावलिंगी साधुके जितने भी कर्तव्य कर्म कहे गये हैं उन्हें अबुद्धिपूर्वक मानना भी उचित नहीं है । चरणानुयोगको रचना भी श्रावक और मुनिकी प्रवृत्ति कैसी हो इसी अभिप्रायसे हुई है । वह जिनवाणी हैं, इसलिये यही मानना उचित है कि ज्ञानी भी जब सविकल्प अवस्थामें वरतता है तब शुभाचारको श्रावक और मुनि कर्तव्य कर्म ही मानने चाहिये । उन्हें आगम में व्यवहार मोक्ष मार्गरूपसे स्वीकार करनेका प्रयोजन भी यही है ? समाधान - प्रश्न मार्मिक है । उसका समाधान यह है कि प्रकृतमें जो बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक कार्यों का विभाजन किया गया है 'वह यह मेरा कार्य और मैं इसका करनेवाला, इस कार्यके किये बिना मेरा तरणोपाय नहीं, ऐसे अभिप्रायपूर्वक जो कार्य होते हैं वे बुद्धिपूर्वक कार्य कहलाते हैं तथा इनके सिवाय अन्य कार्य अबुद्धिपूर्वक कहलाते हैं । आचार्य विद्यानन्दने अबुद्धिपूर्वक कार्यका अर्थ अतर्कतोपस्थित किया है सो इससे भी उक्त कथनी ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमें राग, द्वेष और मोहपूर्वक की गई प्रवृत्ति या अभिप्राय मोक्ष प्राप्ति के लिये इष्ट नहीं है । इस दृष्टिसे शुभोपयोग भी अनुपादेय माना गया है। उसका विकल्पकी भूमिका कहो या प्राक् पदवी कहो उस समय होना और बात है और यह मोक्ष प्राप्तिके लिए परमार्थसे करणीय है ऐसे अभिप्रायपूर्वक उसे उपादेय मानना और बात है । ज्ञानीका अभिप्राय तो एकमात्र अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावमें लीनता प्राप्त करनेका ही रहता है । और इसीलिये आचार्य अमृतचन्द्रदेवने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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