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________________ चतुर्थखण्ड १७९ यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयस्वरूप वस्तुएँ अनन्त है। उन्हें बुद्धिगम्य करके परस्पर विरुद्ध दो दृष्टिकोणोंसे देखनेपर प्रत्येक वस्तु किस रूपमें उजागर होती है, इसीका ख्यापन करते हुए परमागम में अनेकान्तका यह लक्षण प्रस्तुत किया गया है वस्तुत है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है । इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की निष्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों के प्रकाशन का नाम अनेकान्त है। यद्यपि अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताके कारण जो पदार्थ अस्तित्व स्वरूप प्रतीत होते हैं, वे पृथक्-पृथक् है इस अपेक्षा जीव द्रव्य अनन्त है, पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकश द्रव्य । प्रत्येक एक-एक हैं तथा काल द्रव्य लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं तत्प्रमाण है अर्थात् असंख्यात हैं। उसमें से यहाँ विवक्षित आत्मा अनेकान्त स्वरूप कैसे सिद्ध होता है यह देखेंगे। उसमें भी अनेकान्त के स्वरूप का स्थापन करते हुए वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरुद्ध जिन चार युगलों का हम पूर्व में निर्देश कर आये है उनको ध्यान में रखकर क्रम से विचार करेंगे । १. पहला युगल सहज ज्ञानादि स्वरूप होनेसे आत्मा तत्स्वरूप ही है और बाहर अनन्त शेषोंको जानने आदिकी अपेक्षा अतत्स्वरूप ही है । २. आत्मा अपने गुण पर्यायों के समुदायपनेकी अपेक्षासे एक ही है और गुणपर्यायोंके भेदकी अपेक्षासे वह अनेक ही है । ३. आत्मा स्वद्रव्यादि चतुष्टय रूपसे होनेकी शक्तिरूप स्वभाव वाला होनेसे सत् ही है और परद्रव्यादि चतुष्टयरूप न होनेकी शक्तिरूप स्वभाव वाला होनेसे असत् ही है । ४. आत्मा अनादि निधन अविभाग एकरस परिणत होनेके कारण नित्य ही है और क्रमशः होनेवाले एक समयकी मर्यादा वाले रूप वृत्त्यंशसे परिणत होनेके कारण अनित्य ही है। इस प्रकार एक ही आत्मा एक ही समय में उक्त चार युगलरूप होनेसे अनेकान्त स्वरूप है यह निश्चित होता है । जितने भी द्रव्य हैं, उनमेंसे प्रत्येकको इसी प्रकार अनेकान्त स्वरूप घटित कर लेना चाहिए । प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय अनेकान्त स्वरूप कैसे है यह उसका संक्षेपमें स्पष्टीकरण है जब उसका वचनमुखसे विचार किया जाता है तो शब्दों द्वारा उसका कथन दो प्रकारसे घटित होता है-एक क्रमिक रूपसे और दूसरा यौगपद्य रूपसे । इसके अतिरिक्त कथनका कोई तीसरा प्रकार नहीं है । जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म काल, आत्मा (स्वरूप) गुणिदेश और संयोग आदिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूपसे विवक्षित होते हैं, तब एक शब्दमें अनेक धर्मो के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे उन द्वारा प्रत्येक द्रव्यका क्रमसे प्रदिपादन किया जाता है । इसीका नाम विकलादेश है। परन्तु जब वे ही अस्तित्व आदि धर्म काल, आत्मा; गुणिदेश और संयोग आदिको अपेक्षा अभेदरूपसे विवक्षित होते हैं तब एक ही शब्द एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोका अखण्ड रूपसे युगपत् कथन हो जाता है । इसीका नाम सकलादेश है । विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है । इस व्यवस्थाके अनुसार जिस समय एक द्रव्य अखण्ड रूपसे विवक्षित होता है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोकी अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पुराका पूरा द्रव्य एक वचन द्वारा कहा जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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