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________________ १७८: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह साइकिल कौन लाया, तब वह उत्तर देता है कि "मैं लाया।" थोड़ी देर बाद दूसरे व्यक्ति ने पछा कि आप कैसे आये? तब वह उत्तर देता है कि साइकिलसे आया। इसका अर्थ है कि चलनेकी क्रिया स्वयं साइकिलने भी की और उस व्यक्तिने भी की । फिर भी वे दोनों परस्परके कार्यमें निमित्त हैं। इससे निश्चित हुआ कि एककी क्रिया दूसरा नहीं कर सकता । फिर भी वे एक दूसरेकी गतिक्रिया के होने में परस्पर निमित्त अवश्य हैं। प्रत्येक द्रव्यके कर्ता-कर्म आदि षट-कारकके विषयमें यही जैनदर्शनका हार्द है, जो प्रत्येक द्रव्य के अपने-अपने स्वभावमें ही घटित होता है और यही परमार्थ है।' अन्य सब व्यवहार है। अतएव ऐसे व्यवहारको उपचरित शब्दसे अभिहित किया जाता है। अन्यथा प्रत्येक द्रव्यका जो उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव दृष्टि-पथमें आता है वह घटित नहीं हो सकता । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जैसे प्रत्येक द्रव्य उत्पादादि तीन लक्षणवाला होनेसे उसमें स्वयंके द्वारा अर्थक्रिया घटित की जा सकती है, वैसे ही उसे जब तक अनुवत्त प्रत्यय और व्यावृत्त प्रत्ययका विषय नहीं स्वीकार किया जाता, तब तक भी उसमें अर्थक्रिया घटित नहीं हो सकती। यहाँ जो अनुवृत्ताकार प्रत्यय और व्यावृत्ताकार प्रत्ययका प्रसंगसे उल्लेख किया है, सो उन द्वारा क्रमसे साक्ष्य-लक्षण सामान्य और व्यतिरेक-लक्षण विशेषका ज्ञान कराया गया है। प्रत्येक द्रव्यमें ऐसे भी अस्तित्व आदि धर्म पाये जाते हैं, जिनके कारण दो या दोसे अधिक द्रव्य सदृश्य प्रत्ययके गोचर होते हैं । साथ ही प्रतियोगी मनुष्य, तिर्यञ्च आदि रूप पर्यायाश्रित ऐसे भी धर्म पाये जाते हैं जिनके कारण उनमें पार्थक्य प्रतीतिमें आता है । यह दो या दोसे अधिक द्रव्योंको निमित्त कर प्रत्येक द्रव्यमें पाये जाने वाले धर्मोकी अपेक्षा मीमांसा है । एक द्रव्यकी अपेक्षा विचार करनेपर हमें प्रत्येक द्रव्य पर-अपर विवर्तव्यापी भी प्रतीत होता है" और क्रमभावो परिणाम रूप भी प्रतीतिमें आता है, इसलिए उसे क्रमसे ऊर्ध्वता-सामान्य-रूप और पर्यायविशेष रूप भी स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य इन धर्मोंसे घटित होनेके कारण सामान्य-विशेषात्मक स्वीकार किया है और यही प्रमाण ज्ञानका विषय है। इसीसे प्रत्येक द्रव्य अनेकान्त स्वरूप है, यह स्पष्ट हो जाता है। अतः अनेकान्त क्या है और व्यवहार पदवीमें उतार कर उसे कैसे समझा या समझाया जा सकता है इस पर भी संक्षेपमें प्रकाश डालना क्रमप्राप्त है, अतः उसकी मीमांसा की जाती है। अनेकान्तका शब्दार्थ है-अनेके अन्ताः यस्मिन् असौ अनेकान्तः। जिसमें अनेक धर्म तादात्म्यभावसे रहते हैं, उसका नाम अनेकान्त है । इससे तो हम इतना ही जानते हैं कि जड़-चेतन प्रत्येक द्रव्यमे अनेक धर्म पाये जाते हैं । इससे हम यह नहीं जान पाते कि प्रत्येक द्रव्यको अनेकान्तात्मक स्वीकार करने में वास्तविक प्रयोजन क्या है ? आचार्योंने इसे ही स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे अनेकान्तके लक्षणको सुस्पष्ट करते हुए लिखा है तत्र यदेव तत् तदेव अतत्, यदेव एकं तदेव अनेकम्, यदेव सत् तदेव असत्, यदेव नित्यं - देव अनित्यम्-इत्येकस्मिन् वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । १. प्रवचनसार, गा० १६ तत्त्वदीपिका । २. परीक्षामुख, ४/२। ३. वही, ४/४ । ४. वही, सूत्र ४८। ५. वही, सूत्र ४/५ । ६. वही, सूत्र ४/७। ७. वही, ४/१ । ८, समयसार, परिशिष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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