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________________ १६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ करें, आहार दें, उनका उपदेश सुनें, ऐसा करना कहाँ तक उचित है? इस विषयपर समर्थ आचार्योंके वचनोंसे कुछ प्रकाश पड़ता है या नहीं यह हमें देखना है । तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार निर्ग्रन्थोंके उत्तर-भेदोंपर विशद प्रकाश डालते हुए मूलगुण आदिकी अपेक्षा कमीवाले मुनियोंके विषयमें तत्त्वार्थवातिकमें जो कुछ कहा गया है, उसे यहाँ हम शंका-समाधानके रूपमें अविकल दे देना चाहते हैं । यथा शंका-जैसे गृहस्थ चारित्रके भेदसे निर्ग्रन्थ नहीं कहलाता, वैसे ही पुलाकादिकमें भी चारित्रका भेद होनेसे निर्ग्रन्थपना नहीं बन सकता ? . समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जैसे चारित्र और अध्ययन आदिका भेद होनेपर भी जातिसे वे सब ब्राह्मण कहलाते हैं, वैसे ही पुलाकादिक भी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। इसके कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि 'यद्यपि निश्चयनयकी अपेक्षा गणहीनोंमें उक्त संज्ञाकी प्रवृत्ति नहीं होती, परन्तु संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा निर्ग्रन्थके समस्त भेदोंका उसमें संग्रह हो जाता है । इसका विशेष खुलासा करते हुए वहाँ पुनः लिखा है कि बात यह है कि उक्त पुलाक, वकुश और कुशील-इनमें वस्त्र, आभूषण और आयुध आदि नहीं पाये जाते। मात्र सम्यग्दर्शन और निर्ग्रन्थ रूपको समानता देखकर ही उन्हें निर्ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। शंका-इस पर पुनः शंका हई कि जिन्होंने व्रतोंको भंग किया है, ऐसे व्यक्तियों में भी यदि निर्ग्रन्थ शब्दका प्रयोग करते हैं तो धावकोंको भी निर्ग्रन्थ कहना चाहिए ? समाधान-श्रावकोंमें निर्ग्रन्थ रूपका अभाव है, इस कारण उनमें निर्ग्रन्थ शब्दको प्रवृत्ति नहीं होती। हमें तो निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है। - शंका-यदि आपको निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है तो अन्य जो उस रूपवाले हैं, उनमें निर्ग्रन्थपनेकी प्राप्ति होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें निर्ग्रन्थ नहीं माना जा सकता। किन्तु जिनमें सम्यग्दर्शनके साथ नग्नता दिखाई देती है उनमें निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित है। केवल नग्नता देखकर निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित नहीं। श्लोकवार्तिककारका भी यही अभिप्राय है । इन दोनों समर्थ आचार्योंका यह अभिप्राय उस प्रकाशस्तम्भके समान है जो विशाल और गहरे समुद्र में प्रकाश और मार्गदर्शन दोनोंका काम करता है। इस समय मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका सबके लिए इस मंगलमय अभिप्रायके अनुसार चलनेकी बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इस अभिप्रायके मूलमें सम्यग्दर्शन मुख्य है । वह आत्मधर्मका आधार स्तम्भ है । इसमें यही तो कहा गया है कि क्वचित्, कदाचित् बाह्य-चारित्रमें परिस्थितिवश यदि किसी प्रकारकी कमी आ भी जाय तो उतनी हानि नहीं, जितनी कि सम्यग्दर्शनसे च्यत होनेपर इस जीवको उठानी पड़ती है। इसी बातको ध्यानमें रखकर आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनप्राभतमें कहते हैं दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झांति चरियभट्टा सणभट्टा ण सिज्ांति ॥३॥ इसका अर्थ करते हुए पण्डितप्रवर जयचन्दजी छावड़ा लिखते हैं जो पुरुष दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र-भ्रष्ट है, वे तो सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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