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________________ चतुर्थं खण्ड : १६१ नहीं, किन्तु पूरी तरह आम्नायके ज्ञाता गुरुकी सन्निधिपूर्वक ही स्वीकार की गई है। समग्र आगमपर दृष्टिपात करनेसे यही तथ्य फलित होता है ( ११-१४) । आगममें मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिए इसका स्पष्टरूपसे निर्देश करते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें लिखा है कि जिसमें अणुमात्र भी विषयसम्बन्धी आशा नहीं पाई जाती, जो आरम्भ और परिग्रहसे रहित है तथा जो ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन है, मोक्षमार्ग में उसे ही गुरु माना गया है ( ४ ) यद्यपि "आत्मानुशासन" में गुरुका सीधा लक्षण तो दृष्टिगोचर नहीं होता । परन्तु इसमें यतिपतिमें सम्यक् श्रुतका अभ्यास, निर्दोष वृत्ति, पर प्रतिबोधन करनेमें प्रवीणता, मोक्षमार्गका प्रवर्तन, ईर्ष्यारहित वृत्ति, भिक्षावृत्तिमें दीनताका अभाव और लोकज्ञता आदि जिन गुणोंका विधान किया गया है (६) उससे मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिये यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता । आगे (६६-६७) पद्योंमें जिन विशेषताओंका निर्देश किया गया है उनपर दृष्टिपात करनेसे भी उक्त तथ्यका ही समर्थन होता है । इतना अवश्य है कि शिष्योंकी सम्हाल करनेमें उसे प्रमादी नहीं होना चाहिए (१४१-१४२) । और न स्नेहालु या शिष्योंके दोषोंके प्रति दुर्लक्ष्य करनेवाला होना चाहिए । यह मोक्षमार्ग के गुरुका संक्षेपमें स्वरूप निर्देश है। यह हो सकता है कि क्वचित् कदाचित् उसमें मूलगुणोंके पालनमें या उत्तरगुणोंका समग्रभावसे परिशीलन करनेमें कुछ कमी देखी जाय या शरीर संस्कार आदि रूप प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर हो तो भी इतनेमात्रसे उसका मुनिपद सर्वथा खण्डित नहीं हो जाता । यही कारण है कि नैगमादिनयोंकी अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्रमें पुलाक, वकुश और कुशील इन तीन प्रकारके मुनियों को भी निर्ग्रन्थरूपमें स्वीकार किया गया है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जिन मुनियोंमें मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें कमी देखी जाय, उन्हें मुनि मानना कहाँ तक उचित है। प्रश्न मौलिक है और पुराना भी । गुणभद्रसूरिने तो इस विषयको विशेष चर्चा नहीं की । मात्र इतना लिखा है कि जैसे मृगगण हिंस्र प्राणियोंके भयवश रात्रिमें नगरके समीप आ जाते हैं वैसे ही इस कालमें खेद है कि मुनिजन भी भयवश रात्रिमें नगर के समीप आ जाते हैं । किन्तु इस विषय की विशेष चर्चा सोमदेवसूरि और पं० आशाधरजीने विशेषरूपसे की है। ग्यारहवीं शताब्दिके विद्वान् सोमदेवसूरि लिखते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी लेपादिसे युक्त जिनप्रतिमा पूजी जाती है, वैसे ही पूर्वकालके मुनियों की छाया मानकर वर्त्तमानकालके मुनि पूज्य हैं । मुनियोंको मात्र भोजन ही तो देना है, इसमें वे सन्त हैं कि असन्त इसकी क्या परीक्षा करनी ।२ १३वीं शताब्दिके विद्वान् पं० आशाधरजी भी इसी मतके जान पड़ते हैं । वे भी इसी बातका समर्थन करते हुए लिखते हैं कि - 'जिस प्रकार प्रतिमाओंमें जिनदेवकी स्थापना की जाती है, उसी प्रकार पूर्वकालीन मुनियोंकी इस कालके मुनियोंमें स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । खोद - विनोद करनेमें कोई लाभ नहीं । इस प्रकार हम देखते हैं कि मुनियोंके आचार सम्बन्धी यह प्रश्न उत्तरोत्तर जटिल होता गया है । वर्त्तमानमें जो मुनि हैं, उन्हें हम मुनि न मानें और मनमें वर्तमान मुनियोंकी स्थापना कर बाह्यमें उनकी पूजा ९. इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥ आत्मानुशासन, १९७ । २. यशस्तिलकचम्पू, उत्तरखण्ड, ४०५ । ३. सागारधर्मामृत, अ० २ श्लो० ६४ । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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