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________________ स्वावलम्बी जीवनका सच्चा मार्ग स्वावलम्बन दो शब्दोंसे मिल कर बना है-स्व और अवलम्बन । इसका अर्थ है किसी भी आत्मकार्यमें परमुखापेक्षी नहीं होना । धर्म व्यक्तिके जीवनमें आई हुई कमजोरीको दूर कर उसे स्वावलम्बी बनाता है। इसे जीवनमें उतारनेका मुख्य मार्ग यतिधर्म है। गृहस्थ धर्म कमजोरीको स्वीकार करके चलता है, पर यतिधर्म इस प्रकारकी कमजोरीको थोड़ा भी प्रश्रय नहीं देता। आशय यह कि यतिधर्मके आचरणसे पूर्ण स्वावलम्बनकी शिक्षा मिलती है और गृहस्थ-धर्म शनैः शनैः स्वावलम्बनकी ओर ले जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम यह श्रद्धा करनी होती है कि मैं भिन्न हूँ और ये शरीर, स्त्री, पुत्र, धनादि भिन्न है । इस श्रद्धाके दृढ़ होनेपर यह जीव इन पदार्थों के त्यागके लिए प्रयत्नशील होता है । वह ममकार और अहंकारभावका त्याग करता है। जो परका रंचमात्र भी सहारा लिये बिना स्वावलम्बन पूर्वक जीवन यापन करनेका अभिलाषी होता है, वह यतिधर्मकी दीक्षा लेता है और जो भीतरी कमजोरीवश यकायक ऐसा करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है वह गृहस्थ-धर्मको स्वीकर करता है । गृहस्थ शनैः शनैः स्वावलम्बनकी शिक्षा लेता है । जैसे-जैसे स्वावलम्बनपूर्वक जीवन बिताने में उसके दृढ़ता आती है, वैसे-वैसे वह परपदार्थोके आलम्बनको छोड़ता जाता है और अन्तमें वह भी पूर्ण स्वावलम्बनका अभ्यासी बन जाता है। माना कि यति शरीरके लिए आहार लेता है, मल-मूत्रका त्याग करता है, थकावट आदिके आनेपर विश्राम करता है. स्वमें चित्तके न रहने पर अन्यको उपदेश आदि देता है, केश आदिके बढ़ जानेपर उनका उत्पाटन करता है और तीर्थयात्रादिके लिए गमनागमन करता है, इसलिए यह शंका होती है कि यतिको पूर्ण स्वावलम्बी कैसे कहा जाय ? प्रश्न है तो मार्मिक और किसी अंशमें जीवनकी कमजोरीको व्यक्त करनेवाला भी, पर यह कमजोरी यकायक दूर नहीं की जा सकती है । शरीरका सम्बन्ध ऐसा नहीं है, जिसका त्याग एक झटके में किया जा सके । जैसे धन, पुत्र आदि जुदा हैं, वैसे शरीर जुदा नहीं है। शरीर और आत्मप्रदेश एक क्षेत्रावगाही हो रहे हैं और इनका परस्पर संश्लेष भी हो रहा है । अतः शरीरके रहते हुए यावन्मात्र प्रवृत्तिमें इनका निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्ध बना हुआ है। यही कारण है कि पूर्ण स्वावलम्बन (यति धर्म) की दीक्षा ले लेनेपर भी संसार अवस्थामें जीवन्मुक्त अवस्था मिलनेके पूर्व तक बहुत सी शरीराश्रित क्रियाओंमें आत्मा निमित्त होता रहता है। यदि उन क्रियाओंसे सर्वथा उपेक्षा भाव रखनेका प्रयत्न किया जाता है तो आत्माश्रित ध्यान-भावना आदि क्रियाओंका किया जाना ही कठिन हो जाता है । पर इतने मात्रसे स्वावलम्बन पूर्वक जीवनयापनकी भावना लुप्त नहीं हो जाती है, क्योंकि शरीरके सम्बन्धके साथ रागभावके रहते हए बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक शरीरमूलक सब प्रकारकी क्रियाओंको सर्वथा नहीं छोड़ा जा सकता। जिन क्रियाओंके नहीं करनेसे शरीरकी स्थिति बनी रह सकती है वे क्रियाएँ तो छोड़ दी जाती है, किन्तु जो क्रियाएँ शरीरकी स्थितिके लिए आवश्यक है, उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। दृष्टि शरीरके अवलम्बनको कम करते हए स्वावलम्बनकी ही रहती है। यह शरीरके लिए की जानेवाली क्रियाओंको प्रशस्त नहीं मानता र कारणवश ऐसी क्रियाके नहीं करनेपर परम आनन्दका अनुभव करता है । स्वावलम्बी जीवनका यही सच्चा मार्ग है, जो इस प्राणीको संसार गतसे निकालकर मुक्तिका पात्र बनाता है । संसारका प्रत्येक प्राणी ऐसे स्वावलम्बनका अभ्यासी बने यह हमारी कामना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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