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________________ १५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्वरूपका विचार इस दृष्टिसे करना होगा। पन्थकी बात जाने दीजिये। विचारकोंने और सन्तोंने उसे तो प्रशस्त माना ही नहीं, उन्होंने भीतर ही भीतर घुसकर आत्माको छाननेका प्रयत्न किया है । सात तत्त्वोंकी चर्चा कौन नहीं जानता । वह आत्माको छाननेका एक प्रकार है। मनुष्य गेहूँको छानते समय चलनीका उपयोग करता है। उससे वह गेहूँमें मिली हुई मिट्टीको निकालकर बाहर फेंक देता है। हमें अपनी बुद्धिका उपयोग चलनीके स्थानमें करना है। आत्मामें पुद्गलके निमित्त से अनन्त विकार आ मिले है। उनका हमें संशोधन करना है। मनुष्यकी यह बुद्धि एक मात्र सम्यग्दर्शनके होनेपर जागृत होती है, इसलिए सम्यग्दर्शनकी बड़ी महिमा है । आचार्य कुन्दकुन्द इसकी महिमाका व्याख्यान करते हुए षट्प्राभूतमें लिखते हैं दसणभट्टा भट्टा दसणभट्टस्स णोत्थ णिव्वाण । सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ इसमें चारित्रकी अपेक्षा दर्शनपर विशेष जोर दिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शनसे च्यत है, उसे जीवनके प्रत्येक कार्यसे च्युत समझना चाहिए। वह मक्ति-लाभ नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति जो चारित्रसे च्युत है, सिद्ध हो सकता है, पर सम्यग्दर्शनसे च्युत हआ व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्माके विश्वासका केन्द्र है। इसके द्वारा प्रत्येक प्राणी आत्मासे जड़-तत्त्वोंके पार्थक्यको अनुभवमें लाता है । आत्मामें वैसी योग्यताके होनेपर सर्वप्रथम यह विश्वास गुरुके निमित्तसे प्रस्फुटित होता है । इसके बाद सतत मनन और अनुभवके द्वारा वह दृढ़मल होने लगता है। सम्यग्दर्शनके विविध लक्षण इस उत्पत्ति क्रमको ध्यानमें रख कर ही किये गये हैं। जब हम सात तत्त्वोंका निर्णय करते हैं या देव, गुरु और शास्त्रके स्वरूपको समझनेका प्रयत्न करते हैं, तब हम इस प्रक्रिया द्वारा मात्र अपने स्वरूपपर विश्वास लाते है । घूम-फिरकर पर से भिन्न आत्माके पथक अस्तित्व और उसके स्वरूपको अनुभवमें लाना ही सम्यग्दर्शन है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। आगममें सम्यग्दर्शनके मुख्य दो भेद मिलते हैं-व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन । ये भेद नयदष्टिसे किये गये हैं, तत्त्वतः सम्यग्दर्शन एक है। वह आत्माका गुण है और पर्याय भी । गुण और पर्यायमें अन्तर यह है कि गुण अन्वयी होता है और पर्याय व्यतिरेकी। जब तक जीवको स्व-पर-विवेक नहीं होता तब तक वह मिथ्यादर्शन इस नामसे पुकारा जाता है और स्व-पर-विवेकके होनेपर वही सम्यग्दर्शन कहलाता है । सम्यग्दर्शन यह जीवनकी स्वाभाविक अवस्था है और मिथ्यादर्शन नैमित्तिक अवस्था है। यद्यपि निमित्त भेदसे सम्यग्दर्शनके भी अनेक भेद किये जाते हैं, पर उन निमित्तोंसे मिथ्यादर्शनके निमित्तमें अन्तर है। सम्यग्दर्शनके होने में दर्शन मोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम मुख्य रूपसे विवक्षित है और मिथ्यादर्शनमें दर्शनमोहनीयका उदय लिया गया है। इस तरह विचार करनेपर सम्यग्दर्शनकी महत्ता स्पष्ट हो जाती है। इससे जीवनमें एक नई क्रान्ति जन्म लेती है। मनुष्यके आचार और विचारमें जो अन्तर आता है वह इसीका फल है। स्वर्गकी सम्पदा इसके सामने न कुछ है । इसके होनेपर मनुष्य नरकके दुःख हँसते-हंसते भोग लेता है। मोक्ष प्राप्तिका यह सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है । ऐसी यह पवित्र निधि है । इसलिए भला इसे कौन नहीं चाहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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