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________________ १४२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ इसका कारण केवल वस्तु स्वरूपकी मुख्यता है। कारण, निश्चय केवल वस्तुस्वरूपको ग्रहण करता है, यहाँ पर राग और द्वेष आदि परिणति रहते हुये भी वह निश्चयनयका विषय न होनेके कारण निश्चयनय उसे ग्रहण नहीं करता है । इस तरह इन दोनों नयोंके विषय में व्यवहारका विषय हेय है और निश्चया विषय उपादेय है, इसप्रकार की दृढ़श्रद्धाके द्वारा परवस्तु के ऊपर होनेवाले मोह, राग और द्वेषको क्रमसे त्याग करना चाहिए | इतना ही नहीं, किन्तु इन औदयिक भावोंकी तरह क्षायोपशमिक और औपशमिक अवस्था में भी हेयबुद्धि रहनी चाहिए। और स्वस्वरूपको प्राप्ति के लिये निरन्तर अभ्यास करना चाहिए । परन्तु अनादिकालीन वासनाका सहसा त्याग करना कठिन है, उसके लिए अति अभ्यासकी आवश्यकता है। जैसे-जैसे यह प्राणी संसार में रतिको दुःखरूप और संसारकी अवस्थाओंके त्यागको सुखरूप अनुभव करेगा, वैसे-वैसे इस प्राणीकी परवस्तुके ऊपरकी मोहरूप वासना छूटती जावेगी । परवस्तुसम्बन्धी ममत्वकी कमी हो जानेके कारण राग और द्वेषरूप परिणति अपने आप कम होती जाती हैं । इस तरह धीरे-धीरे घर, स्त्री आदि पदार्थों के छूट जानेपर शरीर सम्बन्धी इष्टानिष्ट बुद्धिकी भी कमी हो जाती है और यह प्राणी इन सबको दुःखका कारण समझकर उनका त्याग कर देता है। इसके बाद इसकी स्थिति आत्मामें होती है, चर्या भी आत्मा के लिये ही करता है और यह अपना सम्बन्ध अपनी आत्मासे हो जोड़ता है। अर्थात् इसकी जो कुछ भी प्रवृत्ति होती है। वह सब आत्माके लिए ही होती है, दूसरे पदार्थों के लिए नहीं । जिस प्रकार सोनेको शुद्ध करनेके लिये उसे तपाया जाता है, पीटा जाता है और दूसरे पदार्थका मेल किया जाता है, वह सब विधि सोनेकी अशुद्धता दूर करने में ही सहकारी होती है। उसी प्रकार परम वैराग्यको प्राप्त हुआ साबु बाह्य समस्त क्रियाओंको करता हुआ भी वे सब उसके कर्मबन्धके लिये कारण न होकर कर्म- निर्जराके लिये ही कारण होती हैं । सत्यदृष्टिसे ऐसा साधु ही सच्चे मोक्षमार्ग अथवा आत्मकल्याणका उपासक समझना चाहिए। उसके आचार्य उपाध्याय आदि अनेक बाह्य वेष दिखते हुये भी तत्वतः वह एकरूप है। शिक्षा और दीक्षा आदिके निमित्तसे वे सब उसकी उपाधियाँ हैं, निजस्वरूप नहीं। ऐसे महात्माको यद्यपि वर्तमान में मोक्षकी प्राप्ति नहीं हुई है, परन्तु उस मार्ग के ऊपर आरूढ़ होनेके कारण साध्यरूपसे नहीं तो भी साधनरूपसे वह महात्मा सबके द्वारा वंदनीय है, अपनी कृति मोक्षमार्गका साक्षात् प्रदर्शक होनेके कारण वही महात्मा हमारा गुरु है, आत्मकल्याणका साक्षात् साधन करनेवाला होनेसे वही महात्मा सच्चा साधु है । अपनेको ऐसे महात्माकी ही निरन्तर वंदना, स्तुति और पूजा करनी चाहिए । यदि वे अपने समक्ष न हों तो भी उनका परोक्ष वंदनामें अपना चित्त रहना चाहिए । Jain Education International SIZA For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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