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________________ चतुर्थ खण्ड : १४१ इस तरह इस संसारी प्राणीको आत्मस्वरूप अथवा सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिए साक्षात् परमात्मा अथवा स्थापनाके रूपमें परमात्मा ही कारण है। वह परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही हो सकता है। वही अपना इष्ट देव है, उसकी ही अपनेको पूजा करनी चाहिये । स्थापनाके रूप में यदि हम और आप उस महाप्रभुकी पूजा करते हैं तो भी साक्षात् देवकी पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्त विकल्प रूप अवस्थामें अपने लिये दूसरा कोई भी तत्त्व अपने आत्मकल्याणका विषय नहीं हो सकता है। गुरुमें भी अंशरूपसे परमात्मज्योति जागृत होती है, इसलिए वह भी अपनी उपासनाकी वस्तु समझनी चाहिए। गृहस्थको इस प्रकार परमात्माकी अनन्यभावसे निरन्तर पूजा करनी चाहिये। हमारे आत्मीक सुखकी प्राप्तिके लिए यही सबसे सरल और हितकर मार्ग है । गुरूपास्ति विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। समन्तभद्रस्वामीने गुरुका लक्षण बतलाते हुये रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहा है कि जो पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है, संसारके सर्व प्रकारके प्रलोभनोंसे जिसका मन उदास हो गया है। जिसने व्यापार आदि सर्वप्रकारके आरम्भका त्याग कर दिया है । जो बाह्य और आभ्यन्तर-इस तरह दोनों प्रकारके परिग्रहसे रहित है और जो निरन्तर ज्ञान, ध्यान तथा तपमें लीन रहता है वह साधु-गुरु प्रशंसायोग्य है । परिवर्तनका नाम संसार है इसलिये इस परिवर्तनमें पड़े हुये सब जीव संसारी समझने चाहिये । उस संसारकी उत्पत्ति अपने विभाव-परिणामोंसे होती है। जब तक यह संसारी प्राणी अपने स्वस्वरूपसे च्युत है अर्थात् परभावमें निजभावकी कल्पना करता है, तब तक विभावपरिणति होना स्वाभाविक बात है। बहुतसे प्राणी अपनेसे सर्वथा भिन्न परभाव ऐसे गृह, स्त्री और पुत्रादिकका त्याग करके भी आत्मा और कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले परभावोंमें अर्थात् परनिमित्तक भावोंमें अपनत्वकी कल्पना करते हैं। उसी प्रकार बहुतसे प्राणी पर-कर्मनिमित्तक भावोंके होते हुये भी तथा उन भावोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली आत्माकी विकारी अवस्थाका प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी आत्माको वर्तमानसे भी सर्वथा शुद्ध मानते हैं । परन्तु ये दोनों ही मान्यतायें वस्तुस्थितिको छोड़कर है। यद्यपि स्वतंत्र आत्मा अनन्त ज्ञानादि गुणवाला है तो भी अनादिकालसे इस आत्माके कर्मबन्ध होनेके कारण केवलज्ञानादि गुण शक्तिरूपसे है, प्रकट नहीं। उन गुणोंकी व्यक्तता रहते हुये जो काम होता है वह अशुद्ध आत्माके नहीं होता है । दियासलाइयोंकी पेटी जो काम नहीं कर सकती है वह एक जलती हुई सींक काम करती है। इस तरह कर्मबद्ध आत्माको सर्वथा शुद्ध मानना जिस प्रकार मिथ्या है, उसी प्रकार उसको सर्वथा रागी और द्वेषी कल्पना करना भी मिथ्या है। आत्माको । रागी और देषी कहा जाता है इसका कारण, परनिमित्त है। कारण, व्यवहार परनिमित्तसे उत्पन्न हये धर्मको ग्रहण करता है। वहाँपर केवलज्ञानादि शक्ति रहते हये भी वह उसका विषय नहीं होनेसे उसे ग्रहण नहीं करता है। उसी प्रकार निश्चयसे जो आत्माको शुद्ध-बुद्ध और निरंजन आदि कहा जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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