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________________ १३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वह सब निष्फल हो जाता है (१०.१२३) । सेवक शूद्रके वास्ते ब्राह्मण उच्छिष्ट भोजन, पुराने वस्त्र और घान्योंके बाकी बचे कण और पुराने बर्तन देवे (१२.१२५) । शूद्रका उपनयन संस्कार न करे (१०.१२६) । क्योंकि उसके पास धन बढ़ जानेपर वह ब्राह्मणों को सताने लगता है (१०.१२९) । " भारतीय परम्परा में विषमताके बीज मनुस्मृतिने बोए, यह इन उल्लेखोंसे स्पष्ट हो जाता है । उपसंहार भारतवर्ष में ईसवी चौथी शताब्दि के पूर्व अछूतपनकी बीमारी नहीं थी । जब ब्राह्मण धर्मका भारतवर्षमें प्राबल्य हुआ और वे जैन-बौद्धोंको परास्त कर मनुस्मृतिके आधारसे समाजव्यवस्थाको दृढ़ मूल करने में समर्थ हुए, तभी से इस भयानक बीमारीने हमारे देश में प्रवेश किया है । बौद्ध इस देशको छोड़कर चले गये इसलिए वे इस बीमारी के शिकार न हो सके, किन्तु जैनोंको ८९वीं शताब्दी में इसके सामने न केवल नतमस्तक होना पड़ा. अपितु समानता के आधारपर स्थापित अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्थासे उन्हें चिरकालके लिए हाथ धोने पड़े ! ब्राह्मण धर्मकी समाज व्यवस्थाके अनुसार अछूतपन एक स्थायी वंशानुगत कलंक है, जो किसी तरह धुल नहीं सकता । आजके रूढ़िवादी जैनी कुछ भी क्यों न कहें, पर हमें इस बातका संतोष है कि जैनधर्मकी उस उदात्त भावना के दर्शन उसके विशाल साहित्य में आज भी होते हैं, जिसने इसका सदा काल तिरस्कार किया है । तभी तो आचार्य जिनसेन कहते हैं मनुष्यजातिकै वृत्तिभेदाहिताद् Jain Education International जातिकर्मोदयोद्भवा । भेदाच्चातुविध्य महाश्नुते || - आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक ४५ जाति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है । यदि उसके चार भेद माने भी जाते हैं, तो केवल आजीविका के कारण ही हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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