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________________ चतुर्थ खण्ड : १३७ मनुस्मृति और शूद्रवर्ण अब यहाँ यह देखना है कि शूद्र वर्णकी इस तरहकी निकृष्ट अवस्थाके होनेमें मनुस्मृतिका कितना हाथ है । यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मनुस्मृतिमें चारों वर्गों के कार्यों और उनके परस्पर सम्बन्धका विस्तृत विचार किया गया है। उसके कर्ता ग्रन्थके आदिमें मंगलाचरणके बाद स्वयं लिखते हैं भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः ।। अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि ॥२॥ हे भगवन् ! सब वर्गों और संकीर्ण जातियोंके धर्मोको आद्यन्त आप हमें कहनेके योग्य हैं । मनुस्मृति कहती है "ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इनकी निष्कपट-भावसे सेवा करना यही एक धर्म शद्रका कहा गया है (१.९१) । शूद्र सन्ध्या करनेके अधिकारी नहीं तथा जो द्विज प्रातः और सायंकालके समय संध्या नहीं करता, वह भी शूद्रके समान सब प्रकारके द्विज कर्त्तव्यसे बहिष्करणीय है (२.१०३)। शुद्र-कन्यासे चारों वर्णो के मनुष्य विवाह कर सकते हैं, परन्तु शूद्र-शूद्र कन्यासे ही विवाह कर सकता है (३.१३) । श्राद्धमें भोजन करते समय ब्राह्मणको चाण्डाल""न देखे (३-२३९)। शूद्रोंके राज्यमें निवास न करे (४.६१)। शद्रको उपदेश न देवे और न जूठ और हवनमें बचा हुआ शाकल्य देवे, तथा शूद्रोंको धर्म और व्रतोंका उपदेश न करे (४.८०)। शूद्रोंको धर्म और व्रतका उपदेश करने वाला मनुष्य उसी शूद्र के साथ असंवत नामक नरकको प्राप्त होता है (४.८१) । श्राद्ध कर्मके अयोग्य शूद्रका पका अन्न न खावे, किन्तु अन्न न मिलनेपर एक रात्रि निर्वाह योग्य उससे कच्चा अन्न ले लेवे (४-२२३) । मृतक शूद्रको गाँवके दक्षिण द्वारसे ले जावे (५-९२) । मरे हुए ब्राह्मणको शूद्रके द्वारा न ले जाय, क्योंकि शूद्रके स्पर्शसे दूषित हुई वह शरीरकी आहुति स्वर्ग देने वाली नहीं होती (५.१०४)। शूद्रोंको मासमें एक बार हजामत बनवाना चाहिए और ब्राह्मणका जूठा भोजन करना चाहिए (५.१४०) । केवल जातिसे जीविका निर्वाह करने वाला धर्महीन ब्राह्मण राजाकी ओरसे धर्मवक्ता हो सकता है, परन्तु शूद्र कदापि नहीं हो सकता (८.२०)। जो शूद्र अपनेसे उच्च वर्णकी निन्दा करे, तो राजा उसकी जिह्वा निकाल ले, क्यं कि उसका पैरसे जन्म है और उसको अपनेसे उच्चको कहनेका अधिकार नहीं है (८. २७०) । यदि कोई शूद्र ब्राह्मणको नीच आदि कुवचन कहे तो अग्निमें तपाकर १० अंगुलकी लोहेकी कील उसके मुंहमें ठोक दे । ८.२७१) । (८.२७२) । मनु जी की आज्ञा है कि शूद्र जिस अंगसे द्विजातियोंकी ताड़ना करे उसी अंगका भंग करना चाहिए (८-२७९)। हाथसे मारे तो हाथ, पैरसे मारे तो पैर भंग कर देना चाहिए (८.२८०) । शूद्र के ब्राह्मणके आसनपर बैठनेपर लोहा गर्म करके उसकी पीठ दाग दे, देशसे निकाल दे और उसके शरीरसे मांस पिण्ड कटवा दे (८.२८१) । शूद्रके ब्राह्मणपर थूकनेपर दोनों होंठ कटवा दे, मूतनेपर लिंगेन्द्रिय छिदवा दे और अपान वायु छोड़नेपर गुदा छेदन कर दे (८.२८२)। जो शूद्र अभिमानवश द्विजातिको बाल पकड़ कर पीड़ा दे या पैर या वृषणोंको कष्ट दे; तो उसके हाथको कटवा दे (८२८३)। शूद्र यदि भर्ता आदि द्वारा रक्षित स्त्रीके साथ गमन करे तो उसका सर्वस्व राजा हर लेवे । यदि अरक्षित स्त्रीके संग गमन करे; तो उसकी लिंगेन्द्रिय कटवा दे (८.३७४)। क्रीतदास या प्राप्तदास इन्हींसे टहल सेवा करावे, क्योंकि ब्रह्मा जीने शूद्रको ब्राह्मणका दास कर्म करनेके लिए ही उत्पन्न किया है (८.४१३), (८.४१४)। (८.४१६) । शूद्रका काम है कि वह निरंतर अपने कार्यमें रत रहे (८.४१८) । स्वर्ग की प्राप्तिके वास्ते और इस लोक में अपनी गुजरके वास्ते शूद्र ब्राह्मणकी सेवा करे, क्योंकि वह ब्राह्मणका सेवक है । सेवक शब्दसे शूद्रकी कृतकृत्यता है (१०.१२२) । ब्राह्मणकी सेवा करना शद्रका परम धर्म कहा है, शूद्र जो अन्य कर्म करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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