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________________ चतुर्थ खण्ड : ११५ की बड़ी भारी कमजोरी है। इस दृष्टिसे तो सब प्रकारके विकार भावहिंसा ही माने गये हैं । यही कारण है कि मुनिको सब प्रकारकी प्रवृत्तिके अन्तमें प्रायश्चित करना पड़ता है। किन्तु गृहस्थकी स्थिति इससे भिन्न हैं । उसका अधिकतर जीवन प्रवृत्तिमूलक ही व्यतीत होता है । वह जीवनकी कमजोरीको घटाना चाहता है । जो कमजोरी शेष है उसे बुरा भी मानता है, पर कमजोरीका पूर्णतः त्याग करने में असमर्थ रहता है, इसलिये वह जितनी कमजोरीके त्यागकी प्रतिज्ञा करता है उतनी उसके अहिंसा मानी गयी है और जो कमजोरी शेष है वह हिंसा मानी गई है। किन्तु यह हिंसा व्यवहारमूलक ही होती है, अतः इससे इसका निषेध नहीं किया गया है । पहले जिस आपेक्षिक अहिंसाकी या आरम्भजन्य हिंसाकी हम चर्चा कर आये हैं वह गृहस्थकी इसी वृत्तिका परिणाम है, यह हिंसा संकल्पी हिंसाकी कोटिको नहीं मानी गयी है। अहिंसाके ऊपर किये गये आपेक्षका निषेध कुछ लोग हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका मुख्य कारण बौद्ध और जैनोंकी अहिंसाको बतलाते हैं। भा० वा० सन्त सा० लिखते हैं कि-"आज यदि संसारकी प्रवत्तिका स्थल रूपसे अवलोकन किया जावे तो बौद्ध और लोगों के द्वारा मानी हुई अहिंसाको कहीं भी स्थान नहीं मिल सकता है यह स्वीकार करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं मालूम पड़ती है। प्रसंग आनेपर समरांगणमें अपने शत्रु के साथ युद्ध करते हए अपने देश और धर्मकी रक्षा करने के लिए यदि हजारों मनुष्योंकी हिंसा हुई तो भी वह क्षात्र धर्मके विरुद्ध नहीं है। जबतक क्षत्रिय और वीर जातियोंकी ऐसी कल्पना थी तबतक विदेशी लोगोंके द्वारा अपने देशके ऊपर आक्रमण होनेपर अपने देशके वीर लोग उनके साथ युद्ध करके जय संपादन करते थे, इतना ही नहीं यदि आपसमें वैमनस्य भी हुआ तो भी देशके ऊपर आपत्ति आनेपर वे लोग वैमनस्यको भूलकर देशका रक्षण करते थे । परन्तु जैसे-जैसे बौद्धधर्मका प्रसार बढ़ता गया वैसे-वैसे क्षत्रिय और दूसरी जातियोंकी वीरवृत्ति कम होती गई और उसका यह परिणाम हुआ कि अशोकादिक राजाओंके द्वारा अहिंसाकी घोषणा सम्पूर्ण देशोंमें करनेपर शत्रुओंके साथ लड़ते हुए हिन्दू राजाओंका एकसरीखा पराभव होता गया जिसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण देश परतन्त्र हो गया । अपनी खुशी. से स्वीकार किये हुए इस निःशस्त्रीकरणके लिये जैनधर्मका प्रसार भी कारण हुआ। परमेश्वरने मनुष्यके शरीरमें जो तामसवृत्ति निर्माणकी है उसका योग्य प्रमाणमें और योग्य समयके ऊपर यदि उपयोग नहीं किया तो तामसी जगतमें आत्मसंरक्षण करना अत्यन्त कठिन हो जायगा ।' इस प्रकार श्री सन्तके लिखे हुए लेखका अच्छी तरहसे मनन करनेपर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका और कायरताका कारण जैनधर्म द्वारा स्वीकार की हुई अहिंसा भी है । उनके मतसे अहिंसा और कायरतामें कुछ भी अन्तर नहीं मालूम पड़ता है। यदि एक मनुष्य आपत्तिके समय किसी दूसरे मनुष्यकी रक्षा करता है अथवा वह विना कारण किसीको संकटमें नहीं डालता है तो उनके मतसे वह सबसे बड़ी भयंकर कायरता करता है। यदि श्री सन्त सा० का लिखनेका यह अभिप्राय न होकर किसीके विना कारण अपने देशके ऊपर आक्रमण करनेपर स्वतःके और देशके रक्षण करने के लिये हमें घोरतम हिंसा भी करनी पड़े तो भी वह क्षम्य है यह हो तो इससे जैनधर्मके अहिंसातत्त्वका ही समर्थन होता है। जैनधर्ममें अहिंसाका प्रतिपादन करते हुए यही तत्त्व आगे रक्खा गया है-इससे आत्मसंरक्षण भी होता है और बिना कारण दूसरेकी हानि भी नहीं होती है । परन्तु सन्त सा०का इस साधारणसे तत्त्वके ऊपर ध्यान नहीं गया हो यह बात नहीं, परन्तु उनके इस आक्षेपका अर्थ अपने पड़ोसीके ऊपर दोषारोपण करनेके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । यदि वे निष्पक्षताके साथ अपने देशके पूर्वेतिहासका निरीक्षण करें तो यह सिद्ध करने में थोड़ी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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