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________________ ११४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं जिससे संसारमें एकमात्र घृणा और द्वेषका ही प्रचार होता है। वर्तमान कालमें जो विविध प्रकारके वाद दिखलाई देते हैं वे इसीके परिणाम हैं । संसारने भीतरसे अपनी दृष्टि फेर ली है। सब बाहरकी ओर देखने लगे हैं । जीवनकी एक भूलसे कितना बड़ा अनर्थ हो रहा है यह समझने और अनुभव करनेकी वस्तु है । यही वह भूल है जिसके कारण हिंसा पनपकर फूल-फल रही है । हिंसाके भेद व उसके कारण __शास्त्रकारोंने इस हिंसाके दो भेद किये हैं-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। भावहिंसा वही है जिसका हम ऊपर निर्देश कर आये हैं। द्रव्यहिंसामें अन्य जीवका विघात लिया गया है। यह भावहिंसाका फल है इसलिए इसे हिंसा कहा गया है। कदाचित् भावहिंसाके अभावमें भी द्रव्यहिंसा होती हुई देखी जाती है, पर उसकी परिगणना हिंसाकी कोटिमें नहीं की जाती है । हिंसाका ठीक अर्थ आत्म-परिणामोंकी कलुषता ही है। कदाचित् कोई जड़ पदार्थको अपकारी मानकर उसके विनाशका भाव करता है और उसके निमित्तसे वह नष्ट, भी हो जाता है, वहाँ यद्यपि किसी अन्य जीवके द्रव्यप्राणोंका नाश नहीं हुआ है तो भी जड़-पदार्थको छिन्न-भिन्न करने में निमित्त होनेवाला व्यक्ति हिंसक ही माना जायगा, क्योंकि ऐसे भावोंसे जो उसके आत्माकी हानि होती है, उसीका नाम हिंसा है। संसारी जीवके कषायमूलक दो प्रकारके भाव होते हैं-रागरूप और द्वेषरूप। इनमेंसे द्वेषमूलक जितने भी भाव होते हैं उन सबकी परिगणना हिंसामेंकी जाती है। कदाचित् ऐसा होता है, जहाँ विद्वेषकी ज्वाला भड़क उठनेका भय रहता है। ऐसे स्थलपर उपेक्षाभावके धारण करनेकी शिक्षा दी गयी है । उदाहरणार्थ--कोई व्यक्ति अपनी स्त्री, भगिनी, माता या कन्याका अपहरण करता है या धर्मायतनका ध्वंस क ता है तो बहुत सम्भव है कि ऐसा करने वाले व्यक्तिके प्रति विद्वेषभाव हो जाय । किन्तु ऐसे समयमें स्त्री आदि की रक्षाका भाव होना चाहिए, उसे मारनेका नहीं । हो सकता है कि रक्षा करते समय उस व्यक्तिकी मत्य हो जाय । यदि रक्षाका भाव हुआ तो वही आपेक्षिक अहिंसा है और मारनेका भाव हआ तो वही हिंसा. है । मुख्यतया ऐसी हिंसाको ही संकल्पी हिंसा कहते हैं । कहीं-कहीं यह हिंसा अन्य कारणोंसे भी होती है शिकार खेलना आदि । सो इसकी परिगणना भी संकल्पी हिंसामें होती है। संकल्पी हिंसा उसका नाम है जो इरादतन की जाती है । कसाई आदि जो भी हिंसा करते हैं उसे भी इसी कोटिकी हिंसा समझना चाहिये, मानाकि उनकी यह आजीविका है पर गाय आदिको मारते समय हिंसाका संकल्प किये बिना वध नहीं हो सकता, इसलिये वह संकल्पी हिंसा है । आरम्भी और संकल्पीहिंसामें इतना अन्तर है कि आरम्भमें गृह निर्माण करना, रसोई बनाना, खेती बाड़ी करना आदि कार्यकी मुख्यता रहती है। ऐसा करते हुए जीव मरते है अवश्य, पर इसमें सीधा जीवनको नहीं मारा जाता, पर संकल्पमें जीव-वधकी मुख्यता रहती है। यहाँ कार्यका श्रीगणेश जीव वधसे ही होता है। रागभाव दो प्रकारका माना गया है-प्रशस्त और अप्रशस्त । जीवन शुद्धिके निमित्तभत पदार्थों में राग करना प्रशस्त राग है और शेष अप्रशस्त राग है। है तो यह दोनों प्रकारका रागभाव हिंसा ही, परन्तु जब तक रागभाव नहीं छूटा है तब तक अप्रशस्त रागसे प्रशस्त रागमें रहना उत्तम माना गया है । इसीसे शास्त्रकारोंने दान देना, पूजा करना, जिन मन्दिर बनवाना, पाठशाला खोलना, उपदेश करना, देशकी उन्नति करना आदि कार्योंका उपदेश दिया है । जीवनमें जिसने पूर्ण स्वावलम्बनको उतारनेकी अर्थात् मुनि धर्मकी दीक्षा ली है, उसे बुद्धिपूर्वक सब प्रकारके रागद्वेषके त्याग करनेका विधान है । क्योंकि बुद्धिपूर्वक किसी भी प्रकारका रागद्वेष बना रहना जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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