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________________ ११०: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ में स्वयं असमर्थ हैं, वे दूसरेको कैसे तारने में समर्थ हो सकते हैं ? लौकिक कामनाकी पूर्तिका होना पुरुषार्थ और भाग्याधीन है। इनकी वन्दना, पूजा करनेसे संचित पुण्यबन्धकी हानि होती है और वर्तमानमें पाप बन्धका भागी होना पड़ता है। इसलिये जिस प्रकार अज्ञानमूलक यह मूढ़ता छोड़ने योग्य है, उसी प्रकार शेष मढ़ता और अनायतनोंके विषयमें भी जान लेना चाहिये। आठ मदोंमें ज्ञानमदका प्रथम स्थान है, वर्तमानमें ज्ञानकी प्राप्ति होना क्षयोपशमके आधीन है और क्षयोपशम यह परमार्थ है । इसलिये अध्यात्ममें तो इसे हेय माना ही गया है; व्यवहार में भी वह हेय ही है। क्योंकि वह प्रतिष्ठाका साधन न होकर आत्म-प्राप्तिका साधन है। उसमें जो अध्यात्म-प्ररूपणाको ही मोक्षमार्गमें एकान्त साधन मानकर, उसके अहंकारसे गर्विष्ठ हुए, समाजको दिग्भ्रमित करने में लगे रहते हैं, उनको हम किन शब्दोंमें याद करें ? दूसरा और तीसरा स्थान जातिमद और कुलमदका है । यह सब जानते हैं कि मन्दिर, मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ये सब धर्मके आयतन हैं। वर्तमानमें आप इनमेंसे किसीके पास भी चले जाइये, सर्वत्र जाति और कुलका बोलबाला दिखायी देगा । समस्त आचार्योंका तो कहना है कि जाति और कुल देहके आश्रित देखे जाते हैं और देहमें ममताका नाम ही संसार है । इसलिये जो इनके बड़प्पन मानने में अपना बड़प्पन देखते हैं, वे त्रिकाल तक अनन्त संसारके पात्र बने रहते हैं। विवेकसे देखा जाय तो शुद्धि अन्यका नाम है और छुआछुत अन्यका नाम है, वह कल्पना मात्र है । आजीविकाके लिये पुराने कालमें जिन विभागोंकी स्थापना की गयी थी, उन्होंने वर्तमानमें जन्मना जातिका स्थान ले लिया है, जिससे संसार दुःखके गर्त में फंसता चला जा रहा है । इससे धर्मके प्रचार-प्रसारमें जो बाधा पहुँची है, वह कल्पनातीत है। बहुत दिन पहलेकी बात है, काशी विद्यापीठ, बनारसमें दर्शनगोष्ठीका आयोजन हुआ था। इसमें दादा धर्माधिकारी मख्य वक्ता थे। उन्होंने जैनदर्शनकी व्याख्या करते हए कहा था कि वर्तमानमे है, बनते नहीं"। उनकी इस टिप्पणीको सुनकर हम और पण्डित महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य हतप्रभ होकर रह गये । उनकी इस बातका हम क्या उत्तर देते ? हम दोनोंके पास इसका कोई उत्तर नहीं था। जब बाबा साहब डॉ० अम्बेडकर भारत सरकारके कानून मन्त्री थे और उन्होंने अछूतोंको बौद्ध बनाकर उनकी स्वतन्त्र समाजकी स्थापना कर दी थी, ऐसे समयमें हम दोनों भाई उनके निवास स्थान पर उनसे मिलने गये । हम दोनोंकी उपस्थितिमें उनके लिये जब चाय बनकर आयी, तब उन्होंने मात्र इसलिये हम दोनोंसे आग्रह नहीं किया कि हम दोनों उनके यहाँ चाय नहीं ले सकेंगे। चर्चाके प्रसंगसे हम दोनोंने उनसे यह पूछा कि आपने बौद्ध धर्मकी ही दीक्षा क्यों ली और दूसरोंको दिलायी? जैनधर्म में क्या कमी थी कि जिससे न तो आपने स्वयं ही जैनधर्मकी दीक्षा ली और न दूसरोंको ही इसके लिये प्रेरित किया। उनका एक उत्तर था कि "यद्यपि जैनधर्म जातिवादसे मुक्त है, यह हम जानते हैं, परन्तु आजका जैन जातिवादके भंवर में फंसा हुआ है। यदि हम जैनधर्म स्वीकार भी करते, तो क्या आजका जैन हमें अपने बराबरीका स्थान देनेको तैयार हो जाता ? हम यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि हमारा जैन बन जानेके बाद भी वही स्थान बना रहता जो हिन्दू रहते हुए बना हुआ था । हम इतना अवश्य कर सकते हैं कि बम्बई में जहाँ हमारी संस्था है। वहाँ बौद्ध मन्दिरके बगलमें समाजकी सहायतासे जैन मन्दिर बनानेको तैयार हैं। क्या आपकी समाज इसे स्वीकार करेगी ?" एक घटना मेरे जेल जीवनकी है । जेलमें मेरे बीमार पड़ जानेपर मुझे अस्पतालमें भेज दिया गया। वहाँ भोजन में दूध और दलिया मिलता था। दूधमें आरारोट जैसी कुछ वस्तु मिली रहती थी, इसलिये उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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