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________________ तृतीय खण्ड : ९९ परिवारकी निकटता आदरणीय पंडितजीसे रही। कोई भी वर्ष शायद ऐसा रहा हो जब पंडितजी विदिशा न पधारे हों। विदिशामें दो पुत्रियोंके सम्बन्ध उनने किये अतः उनके व्यक्तिगत जीवनसे यहाँका घर-घर प्रभावित रहा। सिद्धान्त और दर्शन ज्ञान उनकी मौलिकतासे गहराई तक प्रवेशकी बुद्धि आज भी इतनी उम्रमें उनकी अभूतपूर्व है । लेखन शैली बड़से बड़े विषयोंका प्रतिपादन जिस सहजतासे करती है वह भी अपूर्व है समाजमें वह एक इतिहास है। वे बुन्देलखंडके परवार समाजमें विद्वान् शिरोमणी हैं । परवार समाजके इतिहासकी जो खोज उनके मौलिक प्रतिपादनके अर्थ है वह अपने आपमें इतिहास बनेगी। पुरातत्त्वमें भी उनकी सूझबूझ और खोज निष्ठा सराहनीय है। उन्हें जो इस क्षेत्रमें बहुमान है वह भी इस उम्रके विद्वान् वर्ग में कम मिलता है । विदिशा पुरातत्त्वका महत्त्वपूर्ण इतिहास है और इसमें उनकी रुचि परिलक्षित होती रही है। स्वाध्यायका प्रचार-प्रसार उनका जीवन बन गया है एक ही कार्य में उनकी निष्ठा सदैव जागरूक रहती है। पण्डितजीका जीवन अनुकरणीय है उन्होंने जीवनकी सफलताका सोपान जीवनभर उमंग उत्साहसे चढ़ा है और अब भो इसी हेतु उन्होंने इन्दौरको अपना बनाया है। भगवान् उन्हें दीर्घायु और स्वस्थता प्रदान करें ताकि हम संसार लोलुपी उनका और-और लाभ प्राप्त करते रहें। शत्-शत् नमन .श्रीमती नर्मदा बाई जैन, डोंगरगढ़ जैन-जगतके लिए समर्पित, जिनका तन-मन-धन है, सिद्धान्ताचार्य श्री फूलचन्द्रजीका शत्-शत् वन्दन है । सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीको मुझे काफी निकटसे जाननेका सौभाग्य मिला है। इसलिये और भी कि उन्होंने हमेशा मुझे अपनी छोटी बहिनके समान स्नेह प्रदान किया। मैंने सबसे पहले उन्हें डोंगरगढ़में उस समय देखा जब वे सन् १९४७ में पहिली बार डोंगरगढ़ पधारे थे । पूज्य सेठजी १५ अगस्त, १९४७ की रात्रिमें कार दुर्घटनासे आहत होकर, स्थानीय चिकित्सालयमें भर्ती थे । मैं उस समय सिवनीमें थी। टेलोफोन मिलते ही मैं डोंगरगढ़ आ गई। पण्डित फुलचन्द्र जी उस समय डोंगरगढ़ आये थे और अपने छोटे भाई श्री भैयालालजीके घर रुके थे। श्री भैयालालजी जैन स्थानीय पाठशालामें अध्यापनका कार्य करते थे। पूज्य सेठजीके अस्पताल में भर्ती रहने तक तथा घर आनेके बाद भी भाई साहब प्रतिदिन कुशल-क्षेम पूछने घर आते रहे। वे घंटों हमारे घर बैठते तथा सेठजीके साथ जैनधर्म तथा जैनधर्मके प्राचीन ग्रन्थों पर उनके द्वारा किये जा रहे शोध कार्यों पर चर्चा करते रहते । उनके सरल एवं मधुर स्वभावसे हमलोग काफी प्रभावित हुए । जैनधर्मके इतने प्रकाण्ड विद्वान्, निरभिमानी एवं सरल स्वभावी महामानवका मैंने पहली बार दर्शन किये। भारतीय दिगम्बर जैनसंघ द्वारा उस समय तक कषायपाहुड़ (जयधवला) के दो भाग प्रकाशित किये जा चके थे तथा तीसरे भागकी तैयारी चल रही थी। वीर निर्वाण संवत् २४७४ में पूज्य सेठजी भारतवर्षीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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