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________________ द्वितीय खण्ड : ७१ आधारपर ही व्यक्ति सोचेगा और जातिवादके आधारपर ही व्यक्ति काम करेगा, इसलिए वह धर्मका काम तो नहीं होगा। इससे अपने आप द्वार खुल जायेंगे। दूसरे साहित्यका जो क्षेत्र है, वह हम बहुत संकुचित कर रहे हैं । इस मामलेमें हम लोगोंको पैसा भी नहीं मिलता है । ने.: पारिश्रमिक नहीं मिलता है। फू. : पारिश्रमिक तो अलग बात है, प्रकाशनके लिए भी पैसा नहीं देते हैं । समाज मन्दिर और मूर्तियाँ देखती हैं। हम कहते हैं कि मन्दिर मूर्तियाँ तो अपनी जगह हैं और वे होने ही चाहिए। वह समाजको ले -संस्था परन्तु एक साहित्यिक संस्थाको दष्टिसे भी सोचना चाहिए आदमीको। देश छोटा नहीं है । पूरा विश्व जिसको आज ब्रह्माण्ड विश्व कहते हैं, वह इतना बड़ा देश है तो हमारा साहित्य उन तक कैसे पहुँचे, उन विविध भाषाओंमें, यह कैसे पहुँचे, उसपर ध्यान देना चाहिए । दिगंबर समाज इस ओर ध्यान नहीं देती है, श्वेताम्बर समाज तो ध्यान देती है । वह इस दृष्टिसे काम कर रही है । और हमारी समाज जो है कूपमण्डूक बनी हुई है । ने. : षट्खण्डागम ग्रन्थका वाचन हुआ आचार्य विद्यासागरजीके सांनिध्यमें, दो जगह हुए तीन जगह हुए मुझे मालूम नहीं है। फू. : १॥-२ महीने चला है । ने.: उसकी उपयोगिता क्या है ? फू. : उपयोगिता केवल इतनी कह सकते हैं कि लोगोंका ध्यान इस तरफ खींचे और अपने मूल ग्रन्थ का मान करके इनका स्वाध्याय करने लगे। इतनी उपयोगिता है। __ ने. : हम तीर्थंकरका एक श्रावकाचार अंक निकाल रहे हैं तो एक आदर्श श्रावककी कल्पना क्या है आपकी ? फू. : श्रावकाचार एक बात विशेष है श्रावक जैनधर्ममें वही कहना लाभकारी है कि वह मूल धर्मको अंगीकार करनेके लिए अपने मनमें विचार रखता है कि कदाचित् ऐसा मौका आये कि निर्विकार बने । क्योंकि निर्विकार होनेका श्रावक रास्ता नहीं है। निर्विकार होनेका पूरा रास्ता वही है। अकेले आत्माको बनानेका । अकेले आत्मामें रह जाऊँ और यह जो मेरे ऊपर आवरण है, संयोग है, वह मुझे हर जाये, इसका रास्ता तो एक ही है, यह अपवाद मार्ग है । ने. : अब हम कहाँसे चलना शुरू करें इस मार्गपर । श्रावक कहाँसे चलना शुरू करे। फ.: पहले तो देवको देखे, गुरुको देखे, साहित्यको देखे, तीनोंको देखे । ये हमारे है हमें इनके साथ रहना है । उपदेशोंके अनुसार चलना है । ने. : श्रद्धा होनी चाहिए-निश्चित बात है। फू. : फिर अहिंसाकी तो बातें हैं कि आठ मूलगुणोंका पालना हो यह बात आनी चाहिए। इसके बाद वह श्रावक कहलानेका अधिकारी है । ने. : और उसका आचरण कैसा होना चाहिए जो सामाजिक आचरण । फ.: सामाजिक आचरण-एक तो अपने समाजमें ही उठने बैठनेका परिणाम होना चाहिए उसको । अन्य समाजमें जो जाते हैं, उनके गुण दोष हमारेमें प्रवेश कर जाते हैं, इसलिए जहाँ तक है जिन समाजोंसे, अहिंसाकी बात नहीं है या धर्मकी बात विशेष नहीं है, उन समाजोंसे तो सम्पर्क नहीं होना चाहिए और इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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