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________________ ७० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू पउमचरिउ, हरिवंसपुराण, स्वयम्भूछन्द, पंचमीकहा, स्वयम्भू व्याकरण (अनुपलब्ध)। हरिचंद अणथमीकहा, दशलक्षणकथा, नारिकेरकथा। हरिदेव मयणपराजयचरिउ (१५ वीं शताब्दी के लगभग) हरिभद्रसूरि सनत्कुमारचरित (वि० सं० १२१६) प्रकाशित-रिहणेमिचरिउ हरिभद्र णेमिकुमारचरिउ-प्रकाशित हरिषेण धम्मपरिक्खा (वि० सं० १०४४) हरिसिंह साधु सम्यक्त्वकौमुदी (प्रकाशित, अनेकान्त, ११, २) हेमचन्द्रसूरि सिद्धहेमशब्दानुशासन, देशीनाममाला (१३ वीं शताब्दी)-प्रकाशित हेमचन्द्र ब्रह्म श्रुतस्कन्ध इनके अतिरिक्त पाटनके भण्डारमें जिनप्रभसूरिके नामसे मृगापुत्र कुलक, सुभाषित कुलक, विवेक कुलक, धर्माधर्म विचार कुलक, मल्लिनाथचरित्र, भव्यचरित्र, भव्यकुटुम्बचरित्र, महावीरचरित्र, जिनजन्ममह, श्रावकविधि, अन्तरंगविवाह, चैत्यपरिपाटी, साधार्मिक वासत्य कुलक, वज्रस्वामीचरित्र (वि० सं० १३१६), मोहराजविजय, नर्मदासुन्दरीसन्धि (वि० सं० १३२८), अंतरंगसंधि, अनाथसंधि, मदनरेखासंधि, जीवानुशास्तिसंधि, ऋषभचरितस्तवन, नेमिरास (वि० सं०१२९७), गौतमचरित्र कुलक, जिनागमवचनस्तवन, भावना कुलक, भावनासार, युगादिजिनचरित्र कुलक, मुनिसुवृतस्वामीस्तोत्र, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ-मुनिसुव्रतजिनजन्माभिषेक तथा जिनजन्मोत्सवस्तवन आदि अनेक रचनाएं मिलती हैं। इसी प्रकार आ० जिनदत्तसूरि विरचित उपदेशरसायनरस, कालस्वरूप कुलक, अवस्था कुलक, चर्चरी, आ० जिनबल्लभसूरिकी स्तुति, स्तवन आदि कई रचनाओंका उल्लेख मिलता है। अपभ्रंशमें ऐसी अनेक छोटी-बडी रचनाएं रास, सन्धि, कुलक, चर्चरी आदि रूपमें उपलब्ध होती हैं जिनके लेखकों के संबंधमें कुछ भी ठीक रूपसे ज्ञात नहीं हो सका है। ऐसी रचनाओंमें कुछ निम्नलिखित हैं बाहुबलपाथड़ी, वसन्तविलास फाग (सं० १४००-१४२५), जिनचंदसूरि फाग (सं० १३४१ के लगभग), आबूरास (१३वीं शताब्दी), चर्चरिका, शालिभद्रमातृका, संवेगमातृका, जम्बूचरित्र, मदनरेखाचरित्र, मृगपुत्र महर्षिचरित्र, चतुरंगसन्धि, चतुर्विंशतिजिनकल्याणक, कथाएं, स्तुतिस्तवन आदि । इस प्रकार अपभ्रंश-साहित्य कई रूपोंमें तथा विधाओंमें विकसित मिलता हैं। यद्यपि अभी तक इसका सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं हो सका है परन्तु जो प्रबन्ध रचनाएं मिलती हैं वे कई बातोंमें मध्ययुगीन भारतीय साहित्यमें अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। और उन्हींकी परम्परा तथा शैली पर परवर्ती हिन्दी साहित्य तथा अन्य भारतीय आर्य भाषाओंका साहित्य लिखा गया। भाषा और साहित्य दोन ही रूपोंमें नव्य भारतीय आर्यभाषाभोंका वाङ्मय अपभ्रंशसे पुरस्कृत हुआ है। और इसीलिए परिणामकी दृष्टिसे नहीं, मूल्यांकनकी दृष्टिसे यह साहित्य प्राचीन भारतीय आर्य साहित्य और आधुनिक भारतीय साहित्यकी मध्यवर्ती कड़ी है जो जन-जनकी चेतनाको आज भी अपनी सहज वाणीमें सुरक्षित बनाये हुए है। ऐतिहासिक और काव्यात्मक दोनों ही दृष्टियोंसे आज इस साहित्यका विशेष महत्व बढ़ गया है। परंतु जब तक इसका ठीकसे मूल्यांकन नहीं होता है तब तक मध्ययुगीन भारतीय साहित्यका यथार्थ चित्र अस्पष्ट ही रहेगा। आशा है, भविष्यकी स्पष्ट भावभरी उज्ज्वल रेखाओंमें इसका यथार्थ रूप शीघ्र ही प्रकाशित हो सकेगा। और तभी हिन्दी भाषा तथा साहित्य के उदय तथा विकासकी वास्तविक परम्पराका बोध हो सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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