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________________ महि औरनि मैं हैं सब" का स्वर गु जाते हैं तो जैन अपने को बाँधकर ही प्रेम का विस्तार होता है। दर्शन की इस विचारधारा के समीप पहुंच जाते हैं यह कर्मों का बंधन नहीं; संयम का सहज आचरण है। जहाँ जीव ही परमेश्वर हो जाता है। इतना अन्तर मन के कपाट खुल जाते हैं; जगत के समस्त जीवों में अवश्य है कि जहाँ शंकराचार्य एवं कबीर पिण्ड में अपनी आत्मातुल्यता दृष्टिगत होने लगती है; रागब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्ड में पिण्ड की बात करते हैं वहाँ द्वष की सीमाओं से ऊपर उठकर व्यक्ति सम्यग् ज्ञान, जैन दर्शन में आत्मायें अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् चारित्र्य से युगों-युगों के कर्मस्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक बंधन काट फेंकता है। इसी कारण भगवान ने कहा जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त कि जो ज्ञानी आत्मा इस लोक में छोटे-बड़े सभी पयार्यों का ग्रहण कर सकती है। प्राणियों को आत्मतुल्य देखते हैं, षटद्रव्यात्मक इस महान लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तव्यक्ति की इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं। भाव से संयम में रत रहते हैं-वे ही मोक्ष के अधिकारी आत्मार्थी साधक आम्यन्तर एवं वाह्य दोनों परिग्रहों हैं। इसी कारण आचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर को त्याग देता है। कामनाओं का अन्त करना ही दुख के उपदेश को "सर्वोदय तीर्थ" कहा है। का अन्त है आधुनिक बौद्धिक एवं ताकिक युग में दर्शन ऐसा उस स्थिति में साधक को वस्तु के प्रति ममत्व भाव होना चाहिये जो आग्रह-रहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की नहीं रह जाता। अपने शरीर से भी ममत्व छट प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से जैन-दर्शन का अनेकान्तजाता है। वाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है; उसकी उसी स्थिति में साधक की दृष्टि विस्तृत से विस्तृत- आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है। तर होती है और उसे पता चलता है कि स्वरूपत. अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में सभी आत्मायें एक हैं। विविध गुण एवं धर्म होते हैं। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम सम्भव नहीं इसी कारण भगवान ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तू रखने एवं समस्त संसार को समभाव से देखने का के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है। विभिन्न कोणों निर्देश किया। 'श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में सकती है तथा एक स्थान से देखने पर भी विभिन्न बतलायी । समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण दृष्टाओं की प्रतीतियाँ भिन्न हो सकती हैं। भारत में बनाती है। जिस क्षण कोई व्यक्ति "सूर्योदय' देख रहा है, संसार भगवान ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं; में दूसरे स्थल से उसी क्षण किसी व्यक्ति को 'सूर्यास्त" जाति और कुल से त्राण नहीं होता; प्राणी माव आत्म- के दर्शन होते हैं। व्यक्ति एक ही होता है उससे तुल्य है। इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव विभिन्न व्यक्तियों के अलग-अलग प्रकार के सम्बन्ध होते रखो; आत्मतूल्य समझो, सबके प्रति मैत्री भाव रखो, हैं। एक ही वस्तु में परस्पर दो विरुद्ध धर्मों का समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्व अस्तित्व सम्भव है । इसमें अनिश्चितता की मन:स्थिति का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य बनाने की बात नहीं है; वस्तु के सापेक्ष दृष्टि से महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा। विरोधी गुणों को पहचान पाने की बात है। सार्वभौमिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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