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________________ स्वार्थ की सिद्धि चाहनेवाले दलाल आध्यात्म के सत्य को भौतिकवादी व्यवस्थाओं से बार-बार डॅकने का प्रयास करते हैं । शताब्दी में एकाध व्यक्ति ही ऐसे होते जो धर्म के क्षेत्र में व्याप्त पाखण्ड कदाचार, अमानवीयता पर प्रहार कर वास्तविक सत्य का उद्घा टन करते हैं । उपनिषद्कार के युग में भी याज्ञिक धर्म की विकृतियाँ इतनी उजागर हो गई थीं कि उसे कहना पड़ा कि अमृत तत्व सोने के पात्र से हुआ है। मध्ययुगीन सतो ने भी धर्म के बाह्याडम्बरों पर चोट की । सन्त नामदेव ने 'पाखण्ड भगति राम नहीं रीझ' कहकर धर्म के तात्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने 'जो घर जारे आपना चले हमारे साथ' का आह्वान कर साधना पथ पर द्विधारहित संशयहीन मनःस्थिति से कामनाओं का सर्वथा त्याग कर आगे बढ़ने की बात कही । पंडित लोग पढ़ पढ़कर वेद बखानते हैं, किन्तु उसकी सार्थकता क्या है ? जीवन की चरितार्थता तो इसमें है कि आत्मविचार पूर्वक समदृष्टि की साधना की जावे और ऐसी साधना के बल पर ही दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि काया अन्तर पाइया, सब देवन को देव ।" उपनिषदों में जिस 'तत्वमार्स' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है जैन दर्शन में उसी विचारणा की विकसित एव नवरूपायित अमि व्यक्ति है जहां प्राणी मात्र की स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है ।" संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है । कर्मबंध के फलस्वरूप जीवात्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम विकास की समान शक्तियां निहित हैं। जब सभी प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं तथा स्वयं के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक पहुँच सकते हैं तथा कोई किसी के मार्ग में तत्वतः बाधक नहीं तब फिर किसी से संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? शारीरिक Jain Education International ४७ एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है। जीवन शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है। जब सर्व कर्मों का क्षय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रद्धा एवं अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता है महावीर ने व्यक्ति के चरम पुरुषार्थ को ही नहीं जगाया; प्रज्ञा, विवेक एवं आचरण के बल पर अध्यात्म पथ का अनुवर्तन करनेवाले धार्मिक मानव को देवताओं का भी उपास्य बना विया । उन्होंने कहा कि अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म की साधना करनेवाले साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं। इसके अतिरक्ति जैन दर्शन में अहिंसावाद पर आधारित क्षमा मंत्री, स्वसंयम तथा परप्राणियों को आत्म तुल्य देखने की भावना पर बहुत बल दिया गया है। आत्म स्वरूप को पहचानने में अपने को गलाना पड़ता है, ममत्व भाव को त्यागना पड़ता है और उस स्थिि में आत्मा को जानने का अर्थ 'सम्भाव' हो जाना होता है । आत्मानुसंधान प्रक्रिया में यदि व्यक्ति अपने को संसार की पूजा-प्रतिष्ठा का अधिकारी मान बैठता है तो साधना का दम्भ सारी तपस्या को निष्फल कर देता है उसे सदैव संपत सुव्रत, तपस्वी एवं आत्म- गवेषक रहना चाहिये। सतत् आत्मानुसधान ही साधना है। ऐसे साधक के मन में अपनी प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह सरकार तथा पूजाप्रतिष्ठा की इच्छा ही नहीं रखता, नमस्कार तथा वंदना कराने की भावना ही नहीं रखता 'स्व' को पूरी तरह से त्यागकर आत्म- गवेषक एक को जानकर सब को जान लेता है एक को जानने का अर्थ ही है सबको जानना तथा सबको जानना ही एक को जानना है । यह दर्शन साधना की परम्परा अविछिन्न रही और इसने 'इकाई' को परम परमार्थता, अनन्तता एवं सर्वव्यापकता के गुण प्रदान किये। जब शंकराचार्य 'अहं ब्रम्हास्मि' की बात करते हैं या कबीर "मैं सब हिन्ह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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