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________________ और प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बन सकने की शक्ति सर्वथा असत का उत्पाद नहीं होता। फिर भी वस्तु में से सम्पन्न माना है। अपने ही दुष्कर्मों से जीव दुर्गति प्रति समय उत्पाद-विनाश हुआ करता है। का भागी होता है और अपने ही पुरुषार्थ से निर्वाण प्राप्त करता है। ईश्वरवादी दर्शन जीव को कम करने में अनेकान्तस्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र मानते हैं। कहा है __ जैनागम के अनुसार भगवान महावीर के मुख से जो प्रथम वाक्य निस्टत हुआ, वह था- 'उप्पन्नेइ वा, अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दु:खयोः । विगमेइवा, धुवेइ वा' अर्थात् प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।। है, नष्ट होती है और ध्रव होती है । इसे जैन दर्शन में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहते हैं। ये तीनों प्रत्येक वस्तु में अर्थात्--यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख का स्वामी प्रति समय सदा हुआ करते हैं। तभी वस्तु सत् होती नहीं है। ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग अथवा नरक में है। अत: जैन दर्शन में सत का लक्षण ही उत्पाद-व्ययजाता है। ध्रौव्य है। इसी से तत्वार्थ सत्र में कहा है-'उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत्। किन्तु भगवान महावीर के दर्शन में इस प्रकार के ईश्वर की कोई स्थिति नहीं है। इस दृष्टि से उनका उदाहरण के लिये- जब कुम्हार चाक धुमाकर दर्शन निरीश्वरवादी है। जैसे शराब पीने से नशा स्वयं मिट्टी का बरतन बनाता है तो प्रति समय मिट्टी की होता है और दूध पीने से स्वयं शरीर में पुष्टि आती पुरानी दशा नष्ट होकर नई दशा उत्पन्न होती है और है, उसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है । उसी तरह मिट्टी रूप अवस्था ध्र व रहती है। पुरानी दशा के दुष्कर्म करने वाले मनुष्य की परिणति स्वयं ऐसी होती नष्ट होने और नई दशा के उत्पन्न होने में काल भेद है कि वह अपने कर्म से प्रेरित होकर नरक जाता है नहीं है, पूरानी दशा का विनाश ही नई दशा का और शुभकर्म करनेवाला स्वर्ग जाता है। जैन सिद्धान्त उत्पादन है। में कर्मसिद्धान्त अपना एक विशिष्ट स्वतंत्र स्थान रखता है। उसकी प्रक्रिया को समझ लेने पर फलदान की स्थिति विनाश के बिना उत्पाद नहीं, उत्पाद के बिना स्पष्ट हो जाती है। जगत का समस्त व्यापार बिना विनाश नहीं, और ध्रौव्य के बिना उत्पाद विनाश नहीं किसी नियन्ता के कार्यकारण भाव की परम्परा पर तथा उत्पादन विनाश के बिना धौव्य नहीं। अतः जो स्वयं चलता रहता है। जगत की प्रक्रिया ही ऐसी है। उत्पाद है वही विनाश है। जो विनाश है वही उत्पाद उसे न कोई बनानेवाला है और न कोई विनष्ट करने- है, जो उत्पाद विनाश है वही ध्रीव्य है और जो ध्रौव्य वाला है। है वही उत्पाद विनाश है। जैसे घड़े की उत्पत्ति ही मिट्टी की पिण्ड अवस्था का विनाश है क्योंकि भाव प्रत्येक वस्तु स्वतः स्वभाव से ही परिणमनशील भावान्तर के अभाव रूप से अवभासित होता है। जो है। किन्तु वह परिणमन ऐसा नहीं होता कि वस्तु का मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घट का उत्पाद है सर्वथा विनाश हो जाये या एक तत्व बदलकर दूसरे क्योंकि अभाव भावान्तर के भावरूप से अवभासित होता तत्व रूप हो जाये। दर्शनशास्त्र का एक सामान्य है । तथा जो घट का उत्पाद और मिट्टी के पिण्ड का नियम है-सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता और विनाश है वही मिट्टी की ध्र वता है क्योंकि अन्वय का २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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