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________________ एवं हारीति प्रतिमाओं के समनुरूप हैं। अंबिका यक्षी की प्रतिष्ठा कर उसे वहां स्थापित कराया। इससे की मुखाकृति अण्डाकार है, नेत्र अद्ध निमीलित लगता है कि भोजदेव के काल में जैन धर्मावलंबियों की हैं, केश सज्जा घम्मिल्ल आकार का है, कसे हुए गोल अच्छी दशा थी। इन्होंने 10 वी. शताब्दी तक शासन स्तन हैं, ग्रीवा और कुक्षी पर त्रिवलियाँ हैं, उदर भरा किया। दसवीं शताब्दी में पुनः वरजुमन कछवाहा के हुआ तथा नितम्ब चौड़े हैं । यक्ष की प्रतिमा स्थलकाय नेतृत्व में राजपूतों ने इस क्षेत्र तथा दुर्ग पर अपना और लम्बी-चौड़ी है। उसकी तोंद मटके जैसी है। शासन स्थापित किया। ग्वालियर के किले में तीन स्वतन्त्र जैन प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं जो लगभग उसी काल की हैं। इनमें से वर्तमान सास-बहू के मन्दिरों का भी निर्माण इसी एक प्रतिमा कायोत्सर्ग मद्रा में आदिनाथ का अंकन है काल में हमा। इस मन्दिर के लम्बे शिलालेख का पाठ जिसके चारों ओर पदमासन मुद्रा में तेईस तीर्थ कर दिगम्बर यशोदेव द्वारा रचित है। इससे प्रकट होता है अंकित हैं। इस प्रकार यह प्रतिमा एक चतुर्विंशति-पट कि महीपाल कच्छपघात के समय में भी ग्वालियर में के रूप में है। दूसरी प्रतिमा में नन्दीश्वर द्वीप सहित जैन सम्प्रदाय की पूर्ण प्रतिष्ठा थी। ऐसा माना जाता तीर्थ कर आदिनाथ अंकित हैं। तीसरी प्रतिमा कायो• है कि 105 फुट लम्बा, 75 फुट चौड़ा और 100 सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की है। उनके शीर्ष पर नागफण फुट ऊँचा यह मन्दिर महीपाल नामक राजपूत शासक का छत्र अंकित है तथा सून्दर अद्ध मानवाकृति नागों द्वारा नन्दीश्वर द्वीप अष्टानिका के व्रत के उपलक्ष में द्वारा तीर्थकर का जलाभिषेक करते दिखाया गया है। जिनमान्दर क है। जिनमन्दिर के रूप में वनवाया गया। यही कारण है नागों के सिर पर लहरिया केश सज्जा है। इस कि उसमें देव-देवांगनाओं की नृत्य तथा अन्य मुद्राओं प्रकार आठवीं-नवीं शताब्दी में ग्वालियर में जैन धर्म में मूर्तियाँ खुदी हैं । इसकी प्रतिष्ठा में पद्मनाम का काफी प्रभाव था और इसी कारण जैन शिल्पांकन क्षुल्लक आदि ने भी भाग लिया था। यह लगभग की दिशा में भी इस काल में बहुत कार्य हुआ। सन् 1036 में बनकर पूर्ण हुआ। इसके द्वारों, छत और दीवारों की खुदाई दर्शनीय है। यह सास-बह के कन्नौज के परिहार राजा भोजदेव ने भी कुछ समय मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में कुछ इतिके लिये इस दुर्ग पर अपना शासन स्थापित किया हासकारों ने इसका प्राचीन नाम सहस्त्रबाहु का मन्दिर जिसका प्रमाण हमें किले के नीचे सागर ताल पर स्थित बताते हुये इसे विष्णु मन्दिर भी कहा है। सन 875 तथा सन 876 के चतुर्भुज मन्दिर के शिलालेखों से प्राप्त होता है। इनके शासन काल में भारत सरकार द्वारा सन् 1869 में ग्वालियर भी श्री वच्चदान नामक जैन साघ द्वारा सं. 1034 दुर्ग में कुछ ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के उत्खनन् के (सन् 977) में बैशाख वदी पंचमी के दिन जैन मूर्ति अवसर पर प्राप्त, एक ताम्र चैत्य तथा चार तीर्थ करों 7. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1, भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 4, वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला (600 से 1000 ई.) अध्याय 16, मध्यभारत, कृष्णदेव, पृष्ठ 177-78 । 8. मेईस्तर (माइकेल डब्ल्यू); आम, अम्रोल एण्ड जैनिज्म इन ग्वालियर फोर्ट, जर्नल आफ दि ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, 22; 354-58। 9. ग्वालियर का अतीत, पृष्ठ 141 ३४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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