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________________ 'केलि करता जनम जल, गाल्यो लोभ दिखालि ।। जब ऊग लो रवि विमलो, सरवर विकसइ लौ कमलो। मीन मूनिख संसार सरि, काढयो धीवर कालि ।। नीसर स्यों तव यह छोडे, रस लेस्यो आइ वहोडै ।। चितवते ही गज आयौ, दिनकर उगवा न पायो । इस दोहे में जन्म को जल, मनुष्य को मछली, जल पेठो सखर पीयौ, नीसरत कमल खड लीयो । संसार को सरिता और काल को धीवर के रूप में देखना गहि सूडि पावतल चंप्यो, अलिमास्रो धर हरि कंप्यौ। कितना सार्थक है। कवि ने आगे लिखा है इह गंध विषम छै भारी, मनि देख हव्यो न विचारी ॥ 'सो काढ़यो धीवर काल, तिण गाल्यो लोभ दिखाले। घ्राण इन्द्रिय की शक्ति बड़ी प्रबल है। वह दूर से मथ नीर गहीर पईठो, दिठि जाय नहीं जहां दीठो ॥ ही छिपी हुई वस्तु का पता लगा लेती है। बिल्ली को इह रसना रसको घाल्यो, घलि आइ सवइ दुख साल्यो। दूध का पता जल्दी लग जाता है और भोरे को कमल इह रसना रस के नाई, नर मुस बाप गुरु भाई॥ का, चींटी को मिठाई का । सुरभित सुवास मिलने पर घर फेडइ वा पांडै वांटा, नित करइ कपट घण घाटा। हम प्रमदित होते हैं और बीभत्स गंध मिलने पर नाकमूख झूठ सांच नहि बोल, घर छोडि दिसावर डोल।। मुह सिकोड़ लेते हैं और उससे दूर भागने का यत्न कल ऊँच नीच नहि लेखइ, मूरख माहि भलि लेखइ। करते हैं। जिस तरह गंध लोलुपी भ्रमर कमल की यह रस के लीये नर, कुण-कुण करम न कीये ॥ पराग का रस लेता हआ, उसमें इतना आसक्त हो जाता रसना रस विषय बिकारी, वसि होय न औगुण वागारौ। है कि कमल की कली से निकलना भूल जाता है। जिह इह विषय वसि कीयौ, तिहि मुनिख जनम फल दितास्त में का दिनास्त में कमल कली सम्पूट हो गई । और रस की लीयौ ॥" खुमारी में बेसुध हुआ भ्रमर अनेक रंगीन कल्पना करता है--रातभर खूब रस पिऊँगा, जब प्रातःकाल इस पद्य में कवि ने रसना की आसक्ति से होने सूर्योदय होगा, कमल कलियां विकसित होंगी. मैं उससे वाले परिणाम का दिग्दर्शन कराया है। रसना के जाल निकल जाऊँगा । इसी विचार मुद्रा में एक हाथी सरोमें पड़कर लोग घर की पूंजी और प्रतिष्टा को धूलि वर में जल पीने आया, और जल पीकर कमल को में मिला देते हैं और छल-कपट का सहारा लिये भले उखाड़ लिया, और पग तले दाबकर उसे खा गया। मानुष इधर-उधर भटकते फिरते हैं। स्वाद के साम्राज्य वेचारा भौंरा अपने प्राणों से हाथ धो बैठा । अस्तु भौंरे में कुल परम्परा और सत्य को ताक में रखकर दिसावरों के मरण को दृष्टि में रखते हुए गंध का लोभ और में डोलते फिरते हैं । यह कितना चुभता हआ व्यंग है, आसक्ति का परित्याग करना चाहिये । जिसमें कोई कांटा और चुभन नहीं है परन्तु बह हृदय को उद्वेलित कर देता है। अन्त में कवि ने वह भावना आँखों का काम देखना है । यह जीव नेत्रों द्वारा रूप व्यक्त की है कि जिसने रस विषय पर विजय प्राप्त देखने का आदी है। जब यह रूप-सौन्दर्य के अवलोकन करली, उसी का जीवन सफल है में आसक्त हो जाता है, तब अपना आपा खो बैठता है। आज संसार में रूपासक्ति के कारण कितना व्यभिचार "भ्रमर पइट्ठो कमल दिनि, घ्राण गन्धि रस रूढ । हो रहा है। पतंग ज्योति रूप को देखकर अपने प्राण रेण पडया सो संकुच्यो, नीसर सक्यो न मूढ ॥ निछावर कर देता है, उसके अंग-प्रत्यंग विदग्ध हो उठते सोनीसर सवयो न मूढी, अति घ्राण गंधि रस गूढी। हैं। उसी तरह पुरुष भी नारी के अप्रतिम सौन्दर्य को मनचिते रयणि सवायौ, रस लेस्यों आज अघायो। निरखकर रूपासक्त हो अपना सर्वस्व खोकर प्राणों से २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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