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________________ क्रियाओं का सदा अनुष्ठान करते रहते थे। वहाँ तोषक समझाया है । कवि ने लिखा है कि स्पर्शन इन्द्रिय नाम के एक विद्वान भी रहते थे । श्रावकजनों में उस प्रबल है, उसे वश में करना दुष्कर कार्य है किन्तु समय जीणा, ताल्ह, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, जिन्होंने उसे वश में किया वे संसार में सुखी हएनाथसि और भूल्लण आदि श्रावकों ने मेघमाला ब्रत का पालन किया था । यहां हाथुव साह नाम के एक वन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवती सुछंद । परसण इन्द्रिय प्रेरियो, बह दुख सहई गयंद ।। महाजन भी रहते थे, उनके और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत की विधि-विधान कवि ने आगे पद्य में स्पर्शन इन्द्रिय की आसक्ति का उल्लेख करते हए संवत 1580 में प्रथम श्रावण से होनेवाले दुःखों का वर्णन करने हुए लिखा है कि सुदी छठवीं के दिन उक्त कथा को पूर्ण किया था कामातुर हाथी कागज की हथिनी के कारण गड्ढे में जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : पड़कर छुवा-तृषादि के घने दुःख सहता है, वह वहाँ से भाग भी नहीं सकता। उसके दुःख का कौन कवि हाथुव साह महत्ति महंते, पहाचंद गुरुउवए संते। वर्णन कर सकता है। कहाँ तो उसका सूछन्द वनभ्रमण, पणदह सइ जि असीते, आगल सावण मासि छट्ठिय वनों के उत्तम फल. और नदियों का निर्मल नीर, और __मंगल ॥ कहाँ पराधीन हुए हाथी की प्राण घातक अंकुश की कवि की पांचवी कृति 'पंचेन्द्रिय की बेलि, है। चोटें ? कवि ने स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) इन पांचों इन्द्रियों के रूपक द्वारा जो शिक्षा या अनुभूति 'बहु दुख सहै गयंदो, तुम होय गई मति मंदो। कागज के कुजर काजै, पडि खाडै स क्यों न भाजै॥ प्रदान की है । वह केवल सुन्दर ही नहीं है, किन्तु मानव जीवन को आदर्श बनाने के लिये पीयूषधारा तिहि सहीय घणी तिथि भूखो, कवि कौन कहै तिस दूखो। है। कवि ने एक-एक इन्द्रिय के विषय में अच्छा विचार किया है और दृष्टान्तों द्वारा उसे पूष्ट किया इस तरह स्पर्शन इन्द्रिय के कारण अनेक मानवों है। उस पर दृष्टि डालने से मानव जनों ने भी दुख भोगे हैं। रावण भी इसी कारण मृत्यु को से विरक्त होकर आत्मसाधना की ओर अग्रसर हो प्राप्त हुआ, उसकी कथा प्रसिद्ध है । इसके वेग के कारण सकता है। कवि को अपनी इस कृति पर स्वाभिमान मानव अन्धा हो जाता है; उसे हित-अहित का विवेक है। उसकी मान्यता है कि- 'करि वेलि सरस गुण नहीं रहता । इसको वश में करने से लोक में यश और गाया चित चतुर मनुष समझाया' । कवि को अपनी सुख मिलता है। सफलता पर दृढ़ विश्वास है। उसने स्पष्ट शब्दों में रसना इन्द्रिय के वश हुआ मानव भी अपना लिख दिया है-'जिह्न मनु इन्द्रिय वसि कीया, तिह संतुलन खो बैठता है, वह विवेक को ताक में रख देता हरत परत जग जीया' । जिस मानव ने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उसने जगत को जीत लिया है। है। रस के स्वाद में अनुरक्त हुआ अपने को भूलकर स्वादु बन जाता है, जो अन्त में उसके मरण का कारण कवि ने प्रस्तुत वेलि में इन्द्रियों का विवेचन होता है। कवि ने मानव रूपी मछली के रूपक द्वारा जातियों के क्रम से किया है। प्रारम्भ में एक दोहे में इस सत्य की विशद व्यंजना की है। दोहे में रूपक की स्पर्शन इन्द्रिय का स्वरूप हाथी का उदाहरण देकर छटा देखते ही बनती है २६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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