SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशित करवा दिया है । राजस्थान प्राच्य विद्या रूप में प्रकाशित हो चुका है। वैसे द्विसंधान, पचसंधान प्रतिष्ठान जोधपुर से यह प्रकाशित है । आदि तो कई काव्य मिलते हैं पर सप्तसंधान काव्य विश्वभर में यह एक ही है । ग्रथकार ने ऐसा काव्य संस्कृत भाषा में एक विलक्षण ग्रोथ है 'पाश्वभ्युि 3 पहले आचार्य हेमचन्द ने बनाया था, उल्लेख किया दय काव्य जिसकी रचना आ. जिनसेन ने की है। __ है, पर वह प्राप्त नहीं है । इसमें मेघदून के समग्रचरणों की पादपूर्ति रूप में भगवान पार्श्वनाथ का चरित्र दिया है । कालिदास के दक्षिण के दिगम्बर जैन विद्वान हसदेव रचित, मग पद्यों के भावों को आत्मसात करके ऐसा काव्य यह सबसे पक्षी शास्त्र, भी अपने ढ़ग का एक ही नथ है। इसमें पहले समग्र पादपूर्ति के रूप में बनाकर ग्रंथकार ने पशु-पक्षियों की जाति एवं स्वरूप का निरूपण है। अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। इस नथ का विशेष विवरण मेरी प्रेरणा से श्री जयंत ठाकुर ने गुजराती में लिखकर 'स्वाध्याय पत्रिका' में विश्व साहित्य में अजोड़ अन्य जैन संस्कृत ग्रथ है प्रकाशित कर दिया है। इस ग्रथ की प्रतिलिपि बड़ौदा 'अष्ठ लक्षी' । इसे सम्राट अकबर के समय में महो के प्राच्यविद्या मन्दिर में है । पशु-पक्षियों सम्बन्धी पाध्याय समय सून्दर ने संवत 1649 में प्रस्तुत किया। ऐसी जानकारी अभी किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं था। इस आश्चर्यकारी प्रयत्न से सम्राट बहुत ही प्रसन्न मिलती। र हआ। इस ग्रंथ में 'राजा नोद दते सोख्यम' इन आठ अक्षरोंवाले वाक्य के 10 लाख से भी अधिक कन्नड साहित्य का एक विलक्षण ग्रथ है 'भूवलय'। अर्थ किये हैं। रचियता ने लिखा है कि कई अर्थ संगति यह अंकों में लिखा गया है। कहा जाता है कि इसमें में ठीक नहीं बैठे तो भी 2 लाख शब्दों को बाद देकर अनेकों ग्रंथ संकलित हैं एवं अनेकों भाषाएं प्रयुक्त हैं। आठ लाख अर्थ तो इसमें व्याकरण सिद्ध हैं ही इसीलिए इसका एक भाग जैन मित्र मंडल दिल्ली से प्रकाशित इसका नाम 'अष्ट लक्षी' रखा है। यह ग्रंथ देवचन्द हआ है। राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी के समय तो इस लाल भाई पुस्तकोद्वार फण्ड सूरत से प्रकाशित 'अनेकार्थ ग्रंथ के सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई थी। पर उसके रत्न मंजूषा' में प्रकाशित हो चुका है। बाद उसका पूरा रहस्य सामने नहीं आ सका। संस्कृत का तीसरा अपूर्व ग्रंथ है-सप्त संधान हिन्दी भाषा में एक बहुत ही उल्लेनीय रचना है महाकाव्य, यह 18वीं शताब्दी के महान विद्वान 'अर्द्ध कथानक' । 17वीं शताब्दी के जैनसुकवि बनारसी उपाध्याय मेघविजय रचित है । इसमें भी ऋषभदेव, दासजी ने अपने जीवन की आत्मकथा बहुत ही शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पाँच रोचक रूप में इस ग्रंथ में दी है इस आत्मकथा की तीर्थंकरों और श्लोक प्रसिद्ध महापुरूष राम और प्रशंसा श्री बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुक्त कंठ से की कृष्ण, इन संतों-महापुरुषों की जीवनी एक साथ चलती है। इस तरह के और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ जैन है । यह रचना विलक्षण तो है ही । कठिन भी इतनी साहित्य-सागर में प्राप्त हैं, जिससे भारतीय साहित्य है कि बिना टीका के सातों महापुरुषों में सजीवन प्रत्येक अवश्य ही गौरवान्वित हुआ है। वास्तव में इस श्लोक की संगति बैठाना विद्वानों के लिए भी संभव विषय पर तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखा जाना नहीं होता। यह महाकाव्य टीका के साथ पत्राकार अपेतिक्ष है। यहाँ तो केवल संक्षिप्त झाँकी ही दी है २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy