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________________ मर जाय, जल के बिना सूखी जमीन पर क्या कभी परहित-निरत निरन्तर, मन क्रम वचन नेम निवहौंगो नाव चल सकती है ? परिहरि देह जनित चिंता, दुखसुख समबुद्धि सहौंगो तुलसीदास प्रभु यह पथि रहि, अविचल हरिभक्ति लहोंगो 'जैन धर्मामत' में कहा गया है कि जिस पुरुष को संतोष रूपी आभूषण प्राप्त है उसके समीप में सदा (विनय पत्रिका पद 172) निधियाँ विद्यमान रहती हैं, कामधेनु अनुगामिनी बन जाती है और अमर किंकर बन जाते हैं : स्वहित एवं राष्ट्र-हित में परिग्रह-मर्यादा आव श्यक हैं। सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किङ्करायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् । परिग्रह-परिधि के लिए हमें सदा सजग रहना (चतुर्थ अध्याय, पृष्ठ 135) चाहिए । यह सर्वमान्य है कि जैन श्रावक--गृहस्थ के के लिए धन-धान्यादि की आवश्यकता निरन्तर रहती प्राणी की तप्ति होना असंभव सा है' जैसे ईधन है। फिर भी उनका परिमाण निश्चित होना जरूरी है। से अग्नि की, और हजारों नदियों से लवण समुद्र की दिगम्बर मनि-साधक के लिए तो पूर्णरूपेण अपरिग्रही तप्ति नहीं होती, वैसे ही तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त होना परमावश्यक है। हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती । यह असाध्य रोग संतोष से ही साध्य बनता है और शनैः उसे परिग्रह त्याग महाव्रती होना, जरूरी हैशनैःनिर्मूल हो जाता है। अन्यथा उसका स्वरूप ही कलंकित हो जायगा। वाह्य परिग्रह का दिगम्बर साधु त्यागी रहता ही है और भगवान महावीर ने कहा है कि कामना और भय से अतीत हीकर यथालाभ संतुष्ट रहनेवाले साथ ही साथ आभ्यांतर परिग्रह के परित्याग में वह मेधावी पाप नहीं करते : सदैव संलग्न माना गया है । जैन मुनि की इस साधना में न अतिचार आना चाहिए और न अनाचार । लेकिन मेहाविणो लोम भयावईया संतोषिणो व पकरेंति पावं। जैन श्रावक के लिए परिग्रह परिणाम ब्रत का विशेष संतप्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी संतोष महत्व है । कहा भी है :वृति की कामना की है : धन-धान्य आदि वाह्य दस प्रकार के परिग्रह का कबहुक हौं यहि रहनि रहौंगे । परिमाण करके उससे अधिक वस्तुओ में निस्पृहता श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा ते संत-सुभाव गहौंगो। रखना सो इच्छा परिमाण नामका पांचवा परिग्रह जथा लाम संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो। परिमाण वृत है। 5. चेतनेतर बाह्यान्तरग विवर्जनए । ज्ञान संयमसंगो वा निममत्वमसगता। (जन धर्नामृत पचम अध्याय) चेतन और अचेतन तथा वाह्य और अंतरंग सर्व प्रकार के परिग्रह को छोड़ देना और निर्गमत्व भाव को अंगीकार करना अथवा ज्ञान और संयम का ही संगम करना सो असंगता नामक परिग्रह त्याग महाबत जानना चाहिए। १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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