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________________ हो संतोष है । इससे निर्लोभ की भावना बलवती होती पत्रिका के अनेक पद इस सदर्भ में पठनीय है । कामहै, दया की वृद्धि होती है, और उदारता में सत्य का नाओं को त्याग करनेवाला संतोषी ही है जिसे अपरि अनुभव होने लगता है। यही सन्तोष अनन्त कामना ग्रही भी कहा गया है। भगवान महावीर ने कहा हैको समाप्त करता है और आत्मा में ही विराट विश्व कामे कमा ही कमियं खु-दुक्खं ।' की कल्पना को साकार बनाता है। सन्तोष ही परम सुख है। अत: परिग्रह के परित्याग में इसी गुण जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दु:खों (सन्तोष) का विशेष महत्व है । आशा तृष्णा को से छुटकारा पा लेता है । क्योंकि :निर्मूल करनेवाला सन्तोष ही है जो आत्म चिंतन को सफल बनाकर नर को नारायणत्व प्रदान करता इच्छा ह आगास समा अणंतिया । उत्त० है। कविवर बनारसीदास का निम्नस्थ पद यहाँ उल्लेख्य इच्छाएँ (कामनाएँ) आकाश के समान अनंत हैं, एवं इनकी पूर्ति असंभव है । एक ही पूर्ति दूसरी रे मन, कर सदा संतोष, (कामना) को जन्म देती है। जात मिटत सब दुःख दोष । एक संत कवि का यह दोहा सन्तोष की व्याख्या रे मन कर सदा सन्तोष । में पर्याप्त है :बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिसना होति । गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान । बहत ईधन जरत जैसे, अगिनि ऊँची जोति, रे मन, कर सदा संतोष । जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान ।। लोभ लालच मूढ जन सो कहत कंचन दान । गोस्वामी तुलसीदास संतोष की महिमा अंकित फिरत आरत नहिं बिचारत, धरम धन की हान। करते हुए कहते हैंरे मन कर सदा संतोष, संतोष के बिना कोई भी आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं नारकिन के पादसेवत सकुच मानत संक। कर सकता। ज्ञान करि बूझै 'बनारमि' को नृपति को रक । सोरठारे मन, कर सदा सतोष । आध्यात्म-पदावली, पृष्ठ 105।। कोउ विश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु । चले कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मग्मि। स्व-पर-भेद का प्रकाशक संतोष है जिसने-संतोष (दोहावली 275) ने-मायाजनित विकारों को नष्ट किया एवं मन के समस्त दोषों का परिमार्जन कर उसे (मन को) शुद्ध स्वभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा चितन में लगाया है । गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विनय सकता है ? चाहे करोड़ों प्रकार से जतन करते-करते 4. माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर । आशा तृसिना ना मरी, सो कह गए दास कबीर । -संत कबीर १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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