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________________ परिप्रह-एक मानसिक संघर्ष एकत्रित करता हआ व्यभिचारी तक बन जाता है। शंतान की एक अनुकृति है, परिग्रह पशता है, गंभीरता से विचार करते पर यह सत्य हमें प्रभावित उलझन है, संग्राम है, शोषण है. अनर्थ है, संकीर्णता है, करता है कि अपरिग्रही ही सच्चा जैन बनता है । कालिमा है, विष है, मदिरालय है और माया का मानव कहलाता है और सद्गुणी बनकर विश्व की जघन्यरूप है। धरती पर सम्मानित होता है। सन्तोष की उपलब्धि का अर्थ है कि मानव के मानस में संचय की भावना परिग्रही का आचरण इतना हेय होता है कि सर्व- नहीं है। साधारण में भी उसकी प्रतिष्ठा कलंकित हो जाती है और उसका आचरणजन्य घेराव उसकी आत्मिक भगवान महावीर का कथन हैशक्ति को कुठित कर देता। फलतः उसका मानसिक संगनिमित्ति मारइ, भणइ अत्नी करेइ चोरिक्कं । तनाव इतना असंतुलित हो जाता है कि नह स्व पर सेबइ मेहण मच्छं, अप्परिमाण कणइ जीवो ॥ का विभेद भी भूल उठता है । उलझनों से लिपटा हुआ उसका चिन्तन संकीर्ण होकर अनेक अनर्थों को जन्म जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य देता है और पाप कालिमा से कलुषित उसकी जीवन बोलता, चोरी करता है। मैथुन का सेवन करता है सरिता कुठित धूमिल हो जाती है। परिग्रही की धन और अत्यधिक मूर्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह लिप्सा पशुता का ही दूसरा रूप है, जिसमें न करुणा है पाँचों पापों की जड़ है।) और न उदारता । भोगों के जाल में आबद्ध ऐसा संग्राहक विषय बासना की कल्पित पूर्ति में ही अपने लक्ष्य की राग द्वेष की अग्नि को प्रज्वलित करने वाला यह समाप्ति मान लेता हैं जो उसके पतन का प्रारम्भिक परिग्रह ही है जिसने यत्र-तत्र सर्वत्र विभीषिका के अशोभएवं चरम रूप दोनों ही हैं। नीय दृश्यों को अधमाधम धरातल पर प्रदर्शित किया है। कविवर स्व. दुष्यंतकुमार की ये पंक्तियां समाज के रक्तसम्पूर्ण प्रन्थियों का आगार यह अनावश्यक रंजित इतिहास के काले पन्नों को हमारे आगे विचारार्थ संग्रह यद्यपि कांचन-आकर्षण अवश्य है लेकिन इसकी रख रही हैं । इनमें दर्द है, वेदना है दीन की चीत्कार चरमोवलब्धि घृणित मृत्यु मानी गई है। है और शोषण का आर्तनाद है:सब पापों का मूल परिग्रह कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, विश्व में जितने अनर्थ पाप दुष्कर्म होते हैं उनका एक ___ गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं । अब नयी तहबीज के पेशे नजर हम, मात्र कारण परिग्रह है। इसी धन धान्यादि के अनावश्यक संग्रह संचय ने इस पुष्प भूमि को नरकीय रूप में परि आदमी को भूनकर खाने लगे हैं। वर्तित कर दिया है । आज नहीं अपितु एक बड़े समय से इंसान अर्थ लोलुपता के कारण अपना सब कुछ भूल मूर्छा ही परिग्रह है चुका है। छोटे-बड़े संघर्ष इसीलिए हो रहे हैं, कि मनुष्य लालसा, ललक, आकांक्षा, उन्माद, माया, लोलुअपनी लालसा बढ़ाता जा रहा है और बढ़ती हुई उसकी पता आदि को मूर्छा कहा गया है । इसीलिए एक कामना जब अपूर्ण रह जाती है तब वह हिंसा करता है अर्द्धनग्न बनवासी अपरिग्रही नहीं है क्योंकि उसके मानस मिथ्या बोलता कुकर्म करता, चोरी करके धनादि को में धनादि के संग्रह की कामना भावना निरन्तर जीवित १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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