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________________ श्रेष्ठ साधक जैन धर्म में दिगम्बर मुनि परिग्रह मात्र का त्याग करके श्रेष्ठ अहिंसा तथा आत्मशांति का सजीव उदाहरण उपस्थित करते हैं। परिग्रह त्यागी के चरणों के समीप विश्व का वैभव नतमस्तक होता है। एक कवि कहता है : चाह घटी चिन्ता हटी मनुआ बे परवाह | जिन्हें कछू नहि चाहिये वे शाहनपति शाह् । अपरिग्रहत्व तथा अकिंचन वृत्ति पर गांधीजी के शब्द बड़े अनुभवपूर्ण हैं, "सच्चे सुधार का सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह घटाइये त्यों-त्यों सच्चा सुख और संतोष बढ़ता है, सेवा शक्ति बढ़ती है। आदर्श और आत्यंतिक अपरिग्रह तो उसी का होगा जो मन से और कर्म से दिगम्बर है । मतलब वह पक्षी की भांति बिना घर के बिना वस्त्रों के बिना 'अन्न के विचरण करेगा ( गांधी वाणी पृ. 98 ) अविद्या से अभिभूत व्यक्ति ईसा के इस उपदेश को भूल जाता है कि Naked I came from my mother's womb and naked shall I go thither. मैं अपनी माता के उदर से दिगम्बर रूप में आया था, तथा उसी " अवस्था में यहां से उसी स्थल पर चला जाऊंगा । आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में मार्मिक शिक्षा देते हैं : अवो जिक्षयो यान्ति यान्त्वं मजिघृक्षवः । इति स्पष्ट वदन्तौ वा नामोग्रामो तुलान्तयो ॥ | 154 || तराजू के दोनों पलड़े यह बताते हैं कि लेने की इच्छावाला प्राणी लदे पलड़े के समान नीचे जाता है। और न लेने की इच्छावाला प्राणी खाली पलड़े के समान उन्नत दशा को पाता है। सुकरात ने बड़ी सुन्दर Jain Education International बात कही है, The fewer are our wants the more we resemble gods हमारी जितनी जितनी आवश्यकताएँ कम होती हैं उतना हम दिव्यता के समीप पहुँचते हैं। भीषण स्थिति वर्तमान युग की यांत्रिक पद्धति के कारण जगत् में पनवान और धनहीनों के बीच बड़ी गहरी खाई बन गई है। इसके कारण हिंसा का ज्वालामुखी सर्वसंहार हेतु जागृत हो रहा है। इस महा विपत्ति से बचने का उपाय भगवान महावीर का सीमित परिग्रह रखना तथा अनावश्यक संपत्ति को सत्कर्मों में स्वेच्छा से लगाना है। राजकीय अनेक कदम धनिकों को उनके अंधकारमय भविष्य का उद्बोधन करा रहे हैं। एक कवि कहता है : दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयो न कर्तव्यः यह मधुकरीणां संचितमर्थं हरन्त्यन्ये । धन वैभव के प्राप्त होने पर सरकार्यों में संपत्ति का विनियोग करो तथा स्वयं भी उसका उपयोग करो। देखो उस भ्रमरी को, जिसका संचित मधु दूसरे छीन लेते हैं । महावीर की शिक्षा ६७ भगवान महावीर ने कहा था अनित्यानि शरीराणि विभवोनैव शाश्वतः । सन्निहितं च सदा मृत्युः कर्त्तव्यो धर्म संग्रहः ॥ शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहेगा, मृत्यु सदा समीप है, अतः धर्म का संग्रह करना चाहिए। अकबर का कथन सत्य है आगाह अपनी मौत से कोई वशर नहीं । सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं । सेठ जी को फिक्र थी एक-एक के दस कीजिये । मौत आ पहुंची कि हजरत जान वापिस कीजिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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